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उ॒त यो मानु॑षे॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या। अ॒स्माक॑मु॒दरे॒ष्वा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta yo mānuṣeṣv ā yaśaś cakre asāmy ā | asmākam udareṣv ā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। यः। मानु॑षेषु। आ। यशः॑। च॒क्रे। असा॑मि। आ। अ॒स्माक॑म्। उ॒दरे॑षु। आ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो हमारे (उदरेषु) अर्थात् भीतर (उत) और बाहर भी (असामि) पूर्ण (यशः) प्रशंसा के योग्य कर्म को (आचक्रे) सब प्रकार से करता है, जो (मानुषेषु) जीवों और जड़ पदार्थों में सर्वथा कीर्त्ति को किया करता है, सो वरुण अर्थात् परमात्मा वा विद्वान् सब मनुष्यों को उपासनीय और सेवनीय क्यों न होवे॥१५॥
भावार्थभाषाः - जिस सृष्टि करनेवाले अन्तर्यामी जगदीश्वर ने परोपकार वा जीवों को उनके कर्म के अनुसार भोग कराने के लिये सम्पूर्ण जगत् कल्प-कल्प में रचा है, जिसकी सृष्टि में पदार्थों के बाहर-भीतर चलनेवाला वायु सब कर्मों का हेतु है और विद्वान् लोग विद्या का प्रकाश और अविद्या का हनन करनेवाले प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये इस परमेश्वर के धन्यवाद के योग्य कर्म सब मनुष्यों को जानना चाहिये॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

योऽस्माकमुदरेषूतापि बहिरसामि यश आचक्रे यो मानुषेषु जीवेषूतापि जडेषु पदार्थेष्वाकीर्त्तिं प्रकाशितवानस्ति, स वरुणो जगदीश्वरो विद्वान् वा सकलैर्मानवैः कुतो नोपासनीयो जायेत॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु (आ) अभितः (यशः) कीर्त्तिमन्नं वा। यश इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (चक्रे) कृतवान् (असामि) समस्तम् (आ) समन्तात् (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम् (उदरेषु) अन्तर्देशेषु (आ) अभितोऽर्थे॥१५॥
भावार्थभाषाः - येन सृष्टिकर्त्तान्तर्यामिणा जगदीश्वरेण परोपकाराय जीवानां तत्तकर्मफलभोगाय समस्तं जगत्प्रतिकल्पं विरच्यते, यस्य सृष्टौ बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः सर्वचेष्टा हेतुरस्ति, विद्वांसो विद्याप्रकाशका अविद्याहन्तारश्च प्रायतन्ते, तदिदं धन्यवादार्हं कर्म परमेश्वरस्यैवाखिलैर्मनुष्यैर्विज्ञेयम्॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सृष्टिरचना करणाऱ्या अंतर्यामी जगदीश्वराने, परोपकारासाठी, जीवांच्या कर्मानुसार भोग मिळावा यासाठी संपूर्ण जग कल्पाकल्पामध्ये निर्माण केलेले आहे. ज्याच्या सृष्टीमध्ये पदार्थांच्या आत-बाहेर असणारा वायू सर्व कर्मांचा हेतू आहे. विद्वान लोक विद्येचा प्रकाश व अविद्येचा नाश करण्याचा प्रयत्न करतात, त्यामुळे परमेश्वराला धन्यवाद देण्यायोग्य कर्म सर्व माणसांनी जाणावे. ॥ १५ ॥