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न॒हि ते॑ क्ष॒त्रं न सहो॒ न म॒न्युं वय॑श्च॒नामी प॒तय॑न्त आ॒पुः। नेमा आपो॑ अनिमि॒षं चर॑न्ती॒र्न ये वात॑स्य प्रमि॒नन्त्यभ्व॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nahi te kṣatraṁ na saho na manyuṁ vayaś canāmī patayanta āpuḥ | nemā āpo animiṣaṁ carantīr na ye vātasya praminanty abhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न॒हि। ते॒। क्ष॒त्रम्। न। सहः॑। न। म॒न्युम्। वयः॑। च॒न। अ॒मी इति॑। प॒तय॑न्तः। आ॒पुः। न। इ॒माः। आपः॑। अ॒नि॒ऽमि॒षम्। चर॑न्तीः। न। ये। वात॑स्य। प्र॒ऽमि॒नन्ति॑। अभ्व॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! (क्षत्रम्) अखण्ड राज्य को (पतयन्तः) इधर-उधर चलायमान होते हुए (अमी) ये लोक-लोकान्तर (न) नहीं (आपुः) व्याप्त होते हैं और न (वयः) पक्षी भी (न) नहीं (सहः) बल को (न) नहीं (मन्युम्) जो कि दुष्टों पर क्रोध है, उसको भी (न) नहीं व्याप्त होते हैं (न) नहीं ये (अनिमिषम्) निरन्तर (चरन्तीः) बहनेवाले (आपः) जल वा प्राण आपके सामर्थ्य को (प्रमिनन्ति) परिमाण कर सकते और (ये) जो (वातस्य) वायु के वेग हैं, वे भी आपकी सत्ता का परिमाण (न) नहीं कर सकते। इसी प्रकार और भी सब पदार्थ आपकी (अभ्वम्) सत्ता का निषेध भी नहीं कर सकते॥६॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य होने से उसका परिमाण वा उसकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता है। ये सब लोक चलते हैं, परन्तु लोकों के चलने से उनमें व्याप्त ईश्वर नहीं चलता, क्योंकि जो सब जगह पूर्ण है, वह कभी चलेगा? इस ईश्वर की उपासना को छोड़ कर किसी जीव का पूर्ण अखण्डित राज्य वा सुख कभी नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को प्रमेय वा विनाशरहित परमेश्वर की सदा उपासना करनी योग्य है॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अनन्त बल , सहनशक्ति व ज्ञान

पदार्थान्वयभाषाः - १. 'शुनः शेप' वरुण का स्तवन करता हुआ कहता है कि हे प्रभो! (ते क्षत्रम्) - तेरे बल को , (सहः) - सहनशक्ति को व (मन्युम्) - ज्ञान को (अमी) - ये (पतयन्तः) - उड़ते हुए (वयश्चन) - पक्षी भी (नहि आपुः) - नहीं प्राप्त कर सकते । उड़ते हुए पक्षी यदि प्रभु के बल , सहनशक्ति व ज्ञान के ओर - छोर को पाने की कामना करें तो यह उनके लिए सम्भव नहीं है । उस प्रभु का बल , शक्ति व ज्ञान सब अनन्त है ।  २. (इमाः) - ये (अनिमिषम्) - बिना पलक मारे , निरन्तर (चरन्तीः) - चलते हुए (आपः) - जल भी (न) - आपकी शक्ति व ज्ञान के अन्त को नहीं प्राप्त कर सकते ।  ३. (वातस्य) - वायु के (अभ्वम्) - वेग को (ये) - जो (प्रमिनन्ति) - हिंसित करते हैं , अर्थात् उससे भी अधिक वेगवान् होते हैं , वे भी (न) - प्रभु के बल व ज्ञान का अन्त नहीं पा सकते । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु की शक्ति का ज्ञान अनन्त है  ; पक्षियों की उड़ान , जलों के निरन्तर प्रवाह व वायु के वेगों से उनके ओर - छोर का पाना सम्भव नहीं । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे जगदीश्वर ! ते तव क्षत्रं पतयन्तः सन्तोऽमी लोका लोकान्तरानापुर्न व्याप्नुवन्ति न वयश्च न सहो न मन्युं च व्याप्नुवन्ति नेमा अनिमिषं चरन्त्य आपस्तव सामर्थ्यं प्रमिनन्ति, ये वातस्य वेगास्तेऽपि तव सत्तां न प्रमिनन्त्यर्थान्नेमे सर्वे पदार्थास्तवाभ्वम्-सत्तानिषेधं च कर्त्तुं शक्नुवन्ति॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नहि) निषेधे (ते) तव सर्वेश्वरस्य (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् (न) निषेधार्थे (सहः) बलम् (न) निषेधार्थे (मन्युम्) दुष्टान् प्राणिनः प्रति यः क्रोधस्तम् (वयः) पक्षिणः (चन) कदाचित् (अमी) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोका वा (पतयन्तः) इतस्ततश्चलन्तः सन्तः (आपुः) प्राप्नुवन्ति अत्र वर्त्तमाने लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (इमाः) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (आपः) जलानि प्राणा वा (अनिमिषम्) निरन्तरम् (चरन्तीः) चरन्त्यः (न) निषेधे (ये) वेगाः (वातस्य) वायोः (प्रमिनन्ति) परिमातुं शक्नुवन्ति (अभ्वम्) सत्तानिषेधम्। अत्र ‘भू’ धातोः क्विप् ततश्छन्दस्युभयथा। (अष्टा०६.४.८६) इत्यभिपरे यणादेशः॥६॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरस्यानन्तसामर्थ्यवत्त्वान्नैतं कश्चिदपि परिमातुं हिंसितुं वा शक्नोति। इमे सर्वे लोकाश्चरन्ति, नैतेषु चलत्सु जगदीश्वरश्चलति तस्य पूर्णत्वात्। नैतस्माद्भिन्नेनोपासितेनार्थेन कस्यचिज्जीवस्य पूर्णमखण्डितं राज्यं भवितुमर्हति। तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैरयं जगदीश्वरोऽप्रमेयोऽविनाशी सदोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - All those that move in space comprehend not your order and dominion, nor violate your power or force or constancy. Nor do these waters and currents of universal energy ever on the move surpass your presence. Nor even the velocities of the wind can ever violate the immensity of your power which is eternal and immortal.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is His nature is again taught in the 6th Mantra.

अन्वय:

O God, these various visible or invisible worlds or the birds that are flying through the air, cannot attain to Thy inviolable Dominion or Thy might, nor these waters that flow on for ever or the Pranas can measure Thy Prowess. None can compete with Thy Wealth. The gale of wind can never surpass Thy speed. None of these wonderful things can deny Thy existence or Thy might. They all denote Thy glory.

पदार्थान्वयभाषाः - (क्षत्रम्) अखण्डं राज्यम् = Inviolable Dominion. (वय:) पक्षिसमूहा दृश्यादृश्याः सर्वे लोकावा । = Birds or visible or invisible worlds. (आप:) जंलानि प्राणा वा = Water or Pranas. (अभ्वस् सत्ता निषेधम् । अत्र भूधातोः क्विप् ततश्छन्द) स्युभयथा । (अष्टा० ६.४.८६) इत्यचि परे यणादेशः || = Denial of existence.
भावार्थभाषाः - Because God is Omnipotent, none can measure or violate Him. These worlds move on, but God does not move for, He is Perfect. No one can attain to inviolable entire dominion by worshipping any one else except God. Therefore all should adore only God who is Infinite, Immeasurable and Imperishable. This should be known to all.
टिप्पणी: Rishi Dayananda has taken Kshatram for अखण्डराज्यम् Inviolable Dominion. The following passage from Aitareya Brahmana 7.22 substantiates the Rishi's interpretation क्षत्रं हि राष्ट्रम् ( ऐत० ७२ ) Rishi Dayananda has interpreted the word वयः not only birds as others have done, but also as घ्श्यादृश्याः सर्वे लोका: visible or invisible worlds वय: is derived from वी गतिव्याप्ति प्रजनकान्त्यसन खादनेषु so taking the first meaning of गति or moving, it can be used, not only for birds, but also for moving worlds etc. In the Aitareya 1.28 the word वय : is used for प्राण, प्राणो वै वयः ( ऐत० १.२८ ) In Shatapath 8.5.2.6 it is used for अन्न or food taking the sense of खादन or eating of the root, वी, अन्नं वै वयश्चछन्दः (शत० ८.५.२.६) In the Shatapath 9.5.3.7 the word वयांसि has been interpreted as animals पशवो वै वर्यासि ( शत० ९. ३. २.७ because they have movement. Therefore it is clear that taking into consideration the root meaning of वी-गत्यादिषु the word वयः can be used for the worlds that move.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराचे अनंत सामर्थ्य असल्यामुळे त्याचे परिमाण कुणी काढू शकत नाही व त्याची बरोबरीही करू शकत नाही. हे सर्व गोल परिभ्रमण करतात, परंतु गोलाच्या परिभ्रमणाने त्यात व्याप्त असलेला ईश्वर फिरत नाही. कारण जो सर्व स्थानी परिपूर्ण आहे, तो कसा फिरू शकेल? ईश्वराची उपासना सोडून कोणत्याही जीवाला पूर्ण अखंडित राज्य मिळू शकत नाही. यामुळे सर्व माणसांनी प्रमेय, अविनाशी परमेश्वराची सदैव उपासना करावी. ॥ ६ ॥