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उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अथा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते तवाना॑गसो॒ अदि॑तये स्याम॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud uttamaṁ varuṇa pāśam asmad avādhamaṁ vi madhyamaṁ śrathāya | athā vayam āditya vrate tavānāgaso aditaye syāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। उ॒त्ऽत॒मम्। व॒रु॒ण॒। पाश॑म्। अ॒स्मत्। अव॑। अ॒ध॒मम्। वि। म॒ध्य॒मम्। श्र॒थ॒य॒। अथ॑। व॒यम्। आ॒दि॒त्य॒। व्र॒ते। तव॑। अना॑गसः। अदि॑तये। स्या॒म॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में वरुण शब्द ही का प्रकाश किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) स्वीकार करने योग्य ईश्वर ! आप (अस्मत्) हम लोगों से (अधमम्) निकृष्ट (मध्यमम्) अर्थात् निकृष्ट से कुछ विशेष (उत्) और (उत्तमम्) अति दृढ़ अत्यन्त दुःख देनेवाले (पाशम्) बन्धन को (व्यवश्रथाय) अच्छे प्रकार नष्ट कीजिये (अथ) इसके अनन्तर हे (आदित्य) विनाशरहित जगदीश्वर ! (तव) उपदेश करनेवाले सब के गुरु आपके (व्रते) सत्याचरणरूपी व्रत को करके (अनागसः) निरपराधी होके हम लोग (अदितये) अखण्ड अर्थात् विनाशरहित सुख के लिये (स्याम) नियत होवें॥१५॥
भावार्थभाषाः - जो ईश्वर की आज्ञा को यथावत् नित्य पालन करते हैं, वे ही पवित्र और सब दुःख बन्धनों से अलग होकर सुखों को निरन्तर प्राप्त होते हैं॥१५॥तेईसवें सूक्त के कहे हुए वायु आदि अर्थों के अनुकूल प्रजापति आदि अर्थों के कहने से इस चौबीसवें सूक्त की उक्त सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

अन्वय:

हे वरुण ! त्वमस्मदधमं मध्यममुदुत्तमं पाशं व्यवश्रथाय दूरतो विनाशयाथेत्यनन्तरं हे आदित्य ! तव व्रत आचरिते सत्यनागसः सन्तो वयमदितये स्याम भवेम॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) अपि (उत्तमम्) उत्कृष्टं दृढम् (वरुण) स्वीकर्त्तुमर्हेश्वर (पाशम्) बन्धनम् (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (अव) क्रियार्थे (अधमम्) निकृष्टम् (वि) विशेषार्थे (मध्यमम्) उत्तमाधमयोर्मध्यस्थम् (श्रथाय) शिथिलीकुरु। अत्र छन्दसि शायजपि। (अष्टा०३.१.८४) अनेन शायजादेशः। (अथ) अनन्तरार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। (वयम्) मनुष्यादयः प्राणिनः (आदित्य) विनाशरहित (व्रते) सत्याचरणादावाचरिते सति (तव) सत्योपदेष्टुस्सर्वगुरोः (अनागसः) अविद्यमान आगोऽपराधो येषां ते (अदितये) अखण्डितसुखाय (स्याम) भवेम॥१५॥
भावार्थभाषाः - य ईश्वराज्ञां यथावत्पालयन्ति ते पवित्रास्सन्तः सर्वेभ्यो दुःखबन्धनेभ्यः पृथग्भूत्वा नित्यं सुखं प्राप्नुवन्ति नेतर इति॥१५॥त्रयोविंशसूक्तोक्तार्थानां वाय्वादीनामनुयोगिनां प्राजापत्यादीनामर्थानामत्र कथनादेतस्य चतुर्विंशस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे ईश्वराची आज्ञा यथायोग्य नित्य पाळतात, तेच पवित्र असतात व सर्व दुःखबंधनांतून पृथक होऊन निरंतर सुख प्राप्त करतात.