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त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trīṇi padā vi cakrame viṣṇur gopā adābhyaḥ | ato dharmāṇi dhārayan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:22» मन्त्र:18 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सर्वव्यापक जगदीश्वर क्या-क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जिस कारण यह (अदाभ्यः) अपने अविनाशीपन से किसी की हिंसा में नहीं आ सकता (गोपाः) और सब संसार की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) जाने, जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों को (विचक्रमे) विधान करता है, इसी कारण से सब पदार्थ उत्पन्न होकर अपने-अपने (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर के धारण के विना किसी पदार्थ की स्थिति होने का सम्भव नहीं हो सकता। उसकी रक्षा के विना किसी के व्यवहार की सिद्धि भी नहीं हो सकती॥१८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

धर्मों का धारण

पदार्थान्वयभाषाः - १. इस जीव ने (त्रीणि पदा विचक्रमे) - तीन कदमों को विशेष रूप से रखा है [क] यह (विष्णुः) [विष्लृ व्याप्तौ] - हृदय में व्यापकतावाला बना है - इसने अपने मन को विशाल बनाया है । सारी अपवित्रता ' संकोच' के साथ ही तो रहती है । [ख] (गोपाः) - यह इन्द्रियरूप गौवों की रक्षा करनेवाला ग्वाला बना है । [ग] (अदाभ्यः) - यह रोगों व रोगकृमियों से हिंसित नहीं होता । यह अपने शरीर को नीरोग रखने का प्रयत्न करता है । अस्वस्थ शरीर में किसी भी धर्म का पालन सम्भव नहीं होता ।  २. इस प्रकार जब जीव तीन कदम रखता है तो अतः इन तीन कदमों को रखने के कारण (धर्माणि) - धर्मों को (धारयन्) - धारण करता हुआ होता है । वेद में यज्ञ ही प्रथम धर्म माना गया है । यज्ञ में तीन भावनाएँ हैं - ' देवपूजा - संगतीकरण - दान' , अर्थात् ' बड़ों का आदर , बराबरवालों से प्रेम तथा छोटों को दयापूर्वक कुछ देना' ही महान् धर्म है । जो व्यक्ति विष्णु , गोपा व अदाभ्य' बनता है वह इन धर्मों का सम्यक् पालन कर पाता है । मन की व्यापकता - इन्द्रियों की आत्मवश्यता व शरीर की नीरोगता के बिना किसी भी धर्म का पालन सम्भव नहीं , अतः आवश्यक है कि हम ' विष्णु , गोपा व अदाभ्य' बनें ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - विशालहृदय , वशेन्द्रिय व नीरोग बनकर हम धर्मों का पालन करनेवाले हों । बड़ों का आदर करें , बराबरवालों से प्रेम से वर्तें , छोटों के प्रति दया की वृत्ति रखें ।     
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विष्णुर्जगदीश्वरः किं कृतवानित्युपदिश्यते।

अन्वय:

यतोऽयमदाभ्यो गोपा विष्णुरीश्वरः सर्वं जगद्धारयन् संस्त्रीणि पदानि विचक्रमेऽतः कारणादुत्पद्य सर्वे पदार्थाः स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रीणि) त्रिविधानि (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् इति लोपः। (वि) विविधार्थे (चक्रमे) विहितवान् (विष्णुः) विश्वान्तर्यामी (गोपाः) रक्षकः। (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः (अतः) कारणादुत्पद्य (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान् धर्मान् (धारयन्) धारणां कुर्वन्॥१८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्नैवेश्वरस्य धारणेन विना कस्यचिद् वस्तुनः स्थितिः सम्भवति। न चैतस्य रक्षणेन विना कस्यचिद् व्यवहारः सिध्यतीति वेदितव्यम्॥१८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Vishnu, universal sustainer and unchallengeable protector, fixed the order of the threefold universe of forms, comprehensible, apprehensible and spiritually attainable, and hence the forms abide in and observe the laws of their existence and function.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What did Vishnu or Omnipresent God do is taught in the 18th Mantra.

अन्वय:

Because this inviolable, Protector and Omnipresent God upholds this world consisting of the earth, middle region and heaven (which are to be known and attained) therefore being created by Him, all these substances follow the eternal laws ordained by Him.

पदार्थान्वयभाषाः - (पदानि ) वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा । = Three worlds which are to be known or attained. (अदाभ्यः) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्यः = Inviolable because Imperishable or Immortal.
भावार्थभाषाः - Men should clearly know that nothing can be sustained without the upholding Power of God and none can do anything without God's protection.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराने धारण केल्याशिवाय कोणत्याही पदार्थाचे अस्तित्त्व टिकू शकत नाही. त्याच्या रक्षणाखेरीज कुणाच्याही व्यवहाराची सिद्धी होऊ शकत नाही. ॥ १८ ॥