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ते नो॒ रत्ना॑नि धत्तन॒ त्रिरा साप्ता॑नि सुन्व॒ते। एक॑मेकं सुश॒स्तिभिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te no ratnāni dhattana trir ā sāptāni sunvate | ekam-ekaṁ suśastibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते। नः॒। रत्ना॑नि। ध॒त्त॒न॒। त्रिः। आ। साप्ता॑नि। सु॒न्व॒ते। एक॑म्ऽएकम्। सु॒श॒स्तिऽभिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:20» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस प्रकार से सिद्ध किये हुए इन पदार्थों से क्या फल सिद्ध होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो विद्वान् (सुशस्तिभिः) अच्छी-अच्छी प्रशंसावाली क्रियाओं से (साप्तानि) जो सात संख्या के वर्ग अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासियों के कर्म, यज्ञ का करना विद्वानों का सत्कार तथा उनसे मिलाप और दान अर्थात् सबके उपकार के लिये विद्या का देना है, इनसे (एकमेकम्) एक-एक कर्म करके (त्रिः) त्रिगुणित सुखों को (सुन्वते) प्राप्त करते हैं (ते) वे बुद्धिमान् लोग (नः) हमारे लिये (रत्नानि) विद्या और सुवर्णादि धनों को (धत्तन) अच्छी प्रकार धारण करें॥७॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को उचित है कि जो ब्रह्मचारी आदि चार आश्रमों के कर्म तथा यज्ञ के अनुष्ठान आदि तीन प्रकार के हैं, उनको मन, वाणी और शरीर से यथावत् करें। इस प्रकार मिलकर सात कर्म होते हैं, जो मनुष्य इनको किया करते हैं, उनके सङ्ग उपदेश और विद्या से रत्नों को प्राप्त होकर सुखी होते हैं, वे एक-एक कर्म को सिद्ध वा समाप्त करके दूसरे का आरम्भ करें, इस क्रम से शान्ति और पुरुषार्थ से सब कर्मों का सेवन करते रहें॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एवं साधितैरेतैः किं फलं जायत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

ये मेधाविनः सुशस्तिभिः साप्तान्येकमेकं कर्म कृत्वा सुखानि त्रिः सुन्वते ते नोऽस्मभ्यं रत्नानि धत्तन॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) मेधाविनः (नः) अस्मभ्यम् (रत्नानि) विद्यासुवर्णादीनि (धत्तन) दधतु। अत्र व्यत्ययः। तप्तनप्० इति तनबादेशश्च। (त्रिः) पुनः पुनः संख्यातव्ये (आ) समन्तात् (साप्तानि) सप्तवर्गाज्जातानि ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासिनां यानि विशिष्टानि कर्माणि पूर्वोक्तस्य यज्ञस्यानुष्ठानं विद्वत्सत्कारसङ्गतिकरणे दानमर्थात्सर्वोपकरणाय विद्यादानमिति सप्त। (सुन्वते) निष्पाद्यन्ते (एकमेकम्) कर्मकर्म। अत्र वीप्सायां द्वित्वम्। (सुशस्तिभिः) शोभनाः शस्तयः यासां क्रियाणां ताभिः॥७॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैश्चतुराश्रमाणां यानि चतुर्धा कर्माणि यानि च यज्ञानुष्ठानादीनि त्रीणि तानि मनोवाक्शरीरैः कर्त्तव्यानि एवं मिलित्वा सप्त जायन्ते। यैर्मनुष्यैरेतानि क्रियन्ते तेषां संयोगोपदेशप्राप्त्या विद्यया रत्नलाभेन सुखानि भवन्ति। परं त्वेकैकं कर्म संसेध्य समाप्य द्वितीयमिति क्रमेण शान्तिपुरुषार्थाभ्यां सेवनीयानीति॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी ब्रह्मचारी इत्यादी चार आश्रमांचे कर्म तसेच यज्ञाचे तीन प्रकारचे अनुष्ठान, मन, शरीर व वाणीने करावे. या प्रकारचे सात कर्म असतात, जी माणसे अशा प्रकारे वागतात त्यांच्या संगतीत उपदेश व विद्या यांच्याद्वारे त्यांना रत्नलाभ होऊन ती सुखी होतात. त्यांनी एकेका कर्माला सिद्ध करून दुसऱ्याचा आरंभ करावा. या क्रमाने शांतपणे पुरुषार्थपूर्वक सर्व कर्म करीत राहावे. ॥ ७ ॥