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वाय॒विन्द्र॑श्च चेतथः सु॒तानां॑ वाजिनीवसू। तावा या॑त॒मुप॑ द्र॒वत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāyav indraś ca cetathaḥ sutānāṁ vājinīvasū | tāv ā yātam upa dravat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वायो॒ इति॑। इन्द्रः॑। च॒। चे॒त॒थः॒। सु॒ताना॑म्। वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू। तौ। आ। या॒त॒म्। उप॑। द्र॒वत्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:2» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पूर्वोक्त सूर्य्य और पवन, जो कि ईश्वर ने धारण किये हैं, वे किस-किस कर्म की सिद्धि के निमित्त रचे गये हैं, इस विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) ज्ञानस्वरूप ईश्वर ! आपके रचे हुए (वाजिनीवसू) उषा काल के तुल्य प्रकाश और वेग से युक्त (इन्द्रश्च) पूर्वोक्त सूर्य्यलोक और वायु (सुतानाम्) आपके उत्पन्न किये हुए पदार्थों का (चेतथः) धारण और प्रकाश करके उनको जीवों के दृष्टिगोचर कराते हैं, इसी कारण (तौ) वे दोनों उन पदार्थों को (द्रवत्) शीघ्रता से (आयातमुप) प्राप्त होते हैं॥५॥
भावार्थभाषाः - यदि परमेश्वर इन सूर्यलोक और वायु को न बनावे, तो ये दोनों अपने कार्य को करने में कैसे समर्थ होवें॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एतन्मन्त्रोक्तौ सूर्य्यपवनावीश्वरेण धारितावेतत्कर्मनिमित्ते भवत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे वायो ईश्वर ! यतो भवद्रचितौ वाजिनीवसू च पूर्वोक्ताविन्द्रवायू सुतानां सुतान् भवदुत्पादितान् पदार्थान् चेतथः संज्ञापयतस्ततस्तान् द्रवच्छीघ्रमुपायातमुपागच्छतः॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वायो) ज्ञानस्वरूपेश्वर ! (इन्द्रः) पूर्वोक्तः (च) अनुक्तसमुच्चयार्थे तेन वायुश्च (चेतथः) चेतयतः प्रकाशयित्वा धारयित्वा च संज्ञापयतः। अत्र व्यत्ययोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (सुतानाम्) त्वयोत्पादितान् पदार्थान्। अत्र शेषे षष्ठी। (वाजिनीवसू) उषोवत्प्रकाशवेगयोर्वसतः। वाजिनीत्युषसो नामसु पठितम्। (निघं०१.८) (तौ) इन्द्रवायू (आयातम्) आगच्छतः। अत्रापि व्यत्ययः। (उप) सामीप्ये (द्रवत्) शीघ्रम्। द्रवदिति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५)॥५॥
भावार्थभाषाः - यदि परमेश्वर एतौ न रचयेत्तर्हि कथमिमौ स्वकार्य्यकरणे समर्थौ भवत इति॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात परमेश्वराच्या सत्तेने वरील इन्द्र (सूर्य) व वायू आपापले कार्य करण्यास सिद्ध होतात, समर्थ होतात हे वर्णन केलेले आहे. ॥ ५ ॥