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नि गावो॑ गो॒ष्ठे अ॑सद॒न्नि मृ॒गासो॑ अविक्षत। नि के॒तवो॒ जना॑नां॒ न्य१॒॑दृष्टा॑ अलिप्सत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni gāvo goṣṭhe asadan ni mṛgāso avikṣata | ni ketavo janānāṁ ny adṛṣṭā alipsata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। गावः॑। गो॒ऽस्थे। अ॒स॒द॒न्। नि। मृ॒गासः॑। अ॒वि॒क्ष॒त॒। नि। के॒तवः॑। जना॑नाम्। नि। अ॒दृष्टाः॑। अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥ १.१९१.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:191» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (गोष्ठे) गोशाला वा गोहरे में (गावः) गौयें (न्यसदन्) स्थित होतीं वा वन में (मृगासः) भेड़िया, हरिण आदि जीव (न्यविक्षत) निरन्तर प्रवेश करते वा (जनानाम्) मनुष्यों के (केतवः) ज्ञान, बुद्धि, स्मृति आदि (नि) निवेश कर जातीं अर्थात् कार्य्यों में प्रवेश कर जातीं वैसे (अदृष्टाः) जो दृष्टिगोचर नहीं होते वे छिपे हुए विषधारी जीव वा विषधारी जन्तुओं के विष (नि, अलिप्सत) प्राणियों को मिल जाते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे नाना प्रकार के जीव निज-निज सुख-संभोग के स्थान को प्रवेश करते हैं, वैसे विषधर जीव जहाँ-तहाँ पाये हुए स्थान को प्रवेश करते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यथा गोष्ठे गावो न्यसदन् वने मृगासो न्यविक्षत जनानां केतवो न्यविक्षत तथा अदृष्टा न्यलिप्सत ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) नितराम् (गावः) धेनवः (गोष्ठे) गावस्तिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् स्थाने (असदन्) सीदन्ति (नि) (मृगासः) श्वापदादयः (अविक्षत) प्रविशन्ति (नि) (केतवः) ज्ञानानि (जनानाम्) मनुष्याणाम् (नि) (अदृष्टाः) दृष्टिपथमनागता विषधरा विषा वा (अलिप्सत) ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा नानाप्रकारा जीवा निजनिजसुखसंभोगस्थानं प्रविशन्ति तथा विषधरा जीवाश्च यत्र-कुत्र प्राप्तस्थानं प्रविशन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे नाना प्रकारचे जीव आपापल्या सुखाच्या स्थानी प्रवेश करतात तसे विषधर जीव आयत्या प्राप्त झालेल्या (बिळात) स्थानी प्रवेश करतात. ॥ ४ ॥