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इ॒य॒त्त॒कः कु॑षुम्भ॒कस्त॒कं भि॑न॒द्म्यश्म॑ना। ततो॑ वि॒षं प्र वा॑वृते॒ परा॑ची॒रनु॑ सं॒वत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iyattakaḥ kuṣumbhakas takam bhinadmy aśmanā | tato viṣam pra vāvṛte parācīr anu saṁvataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒य॒त्त॒कः। कु॒षु॒म्भ॒कः। त॒कम्। भि॒न॒द्मि॒। अश्म॑ना। ततः॑। वि॒षम्। प्र। व॒वृ॒ते॒। परा॑चीः। अनु॑। स॒म्ऽवतः॑ ॥ १.१९१.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:191» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इयत्तकः) मैला, कुचैला, निन्द्य (कुषुम्भकः) छोटा सा नकुल विषयुक्त है (तकम्) उस दुष्ट को (अश्मना) विष हरनेवाले पत्थर से मैं (भिनद्मि) अलग करता हूँ (ततः) इस कारण (विषम्) उस विष को छोड़ (संवतः) विभागवाली (पराचीः) जो परे दूर प्राप्त होतीं उन दिशाओं को (अनु) पीछा लखि (प्र, वावृते) प्रवृत्त होता है उनसे भी निकल जाता है ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष विष हरनेवाले रत्नों से विष को निवृत्त करते हैं, वे विष से उत्पन्न हुए रोगों को मार बली होकर शत्रु-भूत रोगों को जीतते हैं ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

य इयत्तकः कुषुम्भको विषयुक्तोऽस्ति तकमश्मनाऽहं भिनद्मि ततो विषं तत्परित्यज्य संवतः पराचीरनुलक्ष्य प्रवावृते ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इयत्तकः) कुत्सितस्सः (कुषुम्भकः) अल्पः कुषुम्भो नकुलः। अत्रोभयत्र कन् प्रत्ययः। (तकम्) तम्। अत्राऽकच् प्रत्ययः। (भिनद्मि) पृथक् करोमि (अश्मना) विषहरेण पाषाणेन (ततः) तस्मात् (विषम्) (प्र) (वावृते) प्रवर्त्तते (पराचीः) याः परागञ्चन्ति ताः (अनु) अनुलक्ष्य (संवतः) विभागवत्यः ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - ये पुरुषा विषहरै रत्नैर्विषं निवारयन्ति ते विषजरोगान् निहत्य बलिष्ठा भूत्वा शत्रुभूतान् रोगान् विजयन्ते ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पुरुष विष नष्ट करणाऱ्या रत्नापासून विष नाहीसे करतात ते विषाने उत्पन्न झालेल्या रोगांना मारून बलवान होऊन शत्रू-भूत रोगांना जिंकतात. ॥ १५ ॥