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त्रिः स॒प्त म॑यू॒र्य॑: स॒प्त स्वसा॑रो अ॒ग्रुव॑:। तास्ते॑ वि॒षं वि ज॑भ्रिर उद॒कं कु॒म्भिनी॑रिव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

triḥ sapta mayūryaḥ sapta svasāro agruvaḥ | tās te viṣaṁ vi jabhrira udakaṁ kumbhinīr iva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रिः। स॒प्त। म॒यू॒र्यः॑। स॒प्त। स्वसा॑रः। अ॒ग्रुवः॑। ताः। ते॒। वि॒षम्। वि। ज॒भ्रि॒रे॒। उ॒द॒कम्। कु॒म्भिनीः॑ऽइव ॥ १.१९१.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:191» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विषहरण को मयूरिणियों के प्रसङ्ग से कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सप्त) सात (स्वसारः) बहनियों के समान तथा (अग्रुवः) आगे जानेवाली नदियों के समान (त्रि सप्त) इक्कीस (मयूर्यः) मोरिनी हैं (ताः) वे (उदकम्) जल को (कुम्भिनीरिव) जल का जिनके अधिकार है वे घट ले जानेवाली कहारियों के समान (ते) तेरे (विषम्) विष को (वि, जभ्रिरे) विशेषता से हरें ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जो इक्कीस प्रकार की मयूर की व्यक्ति हैं वे न मारनी चाहियें किन्तु सदैव उनकी वृद्धि करने योग्य है। जो नदी स्थिर जलवाली हो वे रोग के कारण होने से न सेवनी चाहिये। जो जल चलता है, सूर्यकिरण और वायु को छूता है, वह रोग दूर करनेवाला उत्तम होता है ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विषहरणं मयूरिणीप्रसङ्गेनाह।

अन्वय:

हे मनुष्या याः सप्त स्वसारोऽग्रुवो नद्य इव त्रिः सप्त मयूर्यः सन्ति ता उदकं कुम्भिनीरिव ते विषं विजभ्रिरे ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्रिः) (सप्त) एकविंशतिधा (मयूर्यः) मयूराणां स्त्रियः (सप्त) (स्वसारः) भगिन्य इव सर्पादिनाशेन सुखप्रदाः (अग्रुवः) अग्रगामिन्यो नद्यः। अग्रुव इति नदीना०। निघं० १। १३। (ताः) (ते) तुभ्यम् (विषम्) प्राणहरम् (वि) (जभ्रिरे) हरतु (उदकम्) जलम् (कुम्भिनीरिव) यथा जलाधिकारिण्यः ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्या एकविंशतिर्मयूरव्यक्तयः सन्ति ता न हन्तव्याः किन्तु सदा वर्द्धनीया या नद्यः स्थिरजलाः स्युस्ता रोगहेतुत्वान्न सेवनीयाः। यज्जलं चलति सूर्यकिरणान् वायुं च स्पृशति तदुत्तमं रोगहरं भवति ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या एकवीस प्रकारच्या मयुरी आहेत त्यांना मारू नये; परंतु त्यांची सदैव वृद्धी करावी. जी नदी स्थिर जल असणारी आहे तिचे जल रोग होईल म्हणून पिता कामा नये. जे जल प्रवाहित होत असते, सूर्य किरण व वायूचा त्याला स्पर्श होतो ते रोग दूर करणारे असते. ॥ १४ ॥