वांछित मन्त्र चुनें

सूर्ये॑ वि॒षमा स॑जामि॒ दृतिं॒ सुरा॑वतो गृ॒हे। सो चि॒न्नु न म॑राति॒ नो व॒यं म॑रामा॒रे अ॑स्य॒ योज॑नं हरि॒ष्ठा मधु॑ त्वा मधु॒ला च॑कार ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sūrye viṣam ā sajāmi dṛtiṁ surāvato gṛhe | so cin nu na marāti no vayam marāmāre asya yojanaṁ hariṣṭhā madhu tvā madhulā cakāra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सूर्ये॑। वि॒षम्। आ। स॒जा॒मि॒। दृति॑म्। सुरा॑ऽवतः। गृ॒हे। सः। चि॒त्। नु। न। म॒रा॒ति॒। नो इति॑। व॒यम्। म॒रा॒म॒। आ॒रे। अ॒स्य॒। योज॑नम्। ह॒रि॒ऽस्थाः। मधु॑। त्वा॒। म॒धु॒ला। च॒का॒र॒ ॥ १.१९१.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:191» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सूर्य के प्रसङ्ग से विषहरण विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (सुरावतः) सुरा खींचनेवाले शूण्डिया कलार के (गृहे) घर में (दृतिम्) चाम का सुरापात्र जैसे हो वैसे (सूर्ये) सूर्यमण्डल में (विषम्) विष का (आ, सजामि) आरोपण करता हूँ (सः, चित्, नु) वह भी (न, मराति) नहीं मारा जाय और (नो) न (वयम्) हम लोग (मराम) मारे जावें (अस्य) इस विष का (योजनम्) योग (आरे) दूर होता है। हे विषधारी ! (हरिष्ठाः) जो हरण में अर्थात् विषहरण में स्थिर है, विषहरण विद्या जानता है वह (त्वा) तुझे (मधु) मधुरता को प्राप्त (चकार) करता है यह (मधुला) इसकी मधुरता को ग्रहण करनेवाली विषहरण मधुविद्या है ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - जो रोगनिवारक सूर्य के प्रकाश के संयोग से विषहरी वैद्यजन बड़ी-बड़ी ओषधियों से विष को दूर करते हैं और मधुरता को सिद्ध करते हैं, सो यह सूर्य का विध्वंस करनेवाला काम नहीं होता और वे विष हरनेवाले भी दीर्घायु होते हैं ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्यमण्डलविषहरणविषयमाह ।

अन्वय:

अहं सुरावतो गृहे दृतिमिव सूर्ये विषमासजामि सोचिन्नु न मराति नो वयं मराम अस्य योजनमारे भवति। हे विषधारिन् हरिष्ठास्त्वा त्वां मधु चकार। एषा मधुलास्य विषहरणा मधुविद्यास्ति ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सूर्ये) सवितरि (विषम्) (आ) (सजामि) संयुनज्मि (दृतिम्) चर्ममयसुरापात्रमिव (सुरावतः) सवं कुर्वतः (गृहे) (सः)। अत्र वाच्छन्दसीति सुलोपो नाप्राप्तमप्युत्वम्। (चित्) अपि (नु) (न) (मराति) म्रियेत (नो) (वयम्) (मराम) म्रियेमहि (आरे) दूरे (अस्य) (योजनम्) (हरिष्ठाः) यो हरौ विषहरणे तिष्ठति सः (मधु) (त्वा) त्वाम् (मधुला) मधुविद्या मधु लात्याददाति सा (चकार) करोति ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - यत्सूर्यप्रकाशस्य रोगनिवारकस्य संयोगेन विषहरा महौषधिभिर्विषं निवारयन्ति मधुरत्वं च संपादयन्ति तदेतत्सूर्यविध्वंसकरं न भवति ते च दीर्घायुषो भवन्ति ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे वैद्य लोक रोगनिवारक सूर्यप्रकाशाच्या संयोगाने महौषधीद्वारे विष दूर करतात व मधुरता (मधुविद्या) सिद्ध करतात त्यामुळे हे सूर्याचा विध्वंस करणारे काम नसते व ते विष नष्ट करणारेही दीर्घायू होतात. ॥ १० ॥