फिर उनसे क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थान्वयभाषाः - जिन (मरुद्भिः) पवनों से (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) कार्य्यसाधक होता है, उनमें (पूर्वपीतये) पहिले जिसमें पीति अर्थात् सुख का भोग है, उस उत्तम आनन्द के लिये (सोम्यम्) जो कि सुखों के उत्पन्न करने योग्य है, (त्वा) उस (मधु) मधुर आनन्द देनेवाले पदार्थों के रस को मैं (अभिसृजामि) सब प्रकार से उत्पन्न करता हूँ॥९॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग जिन वायु अग्नि आदि पदार्थों के अनुयोग से सब शिल्पक्रियारूपी यज्ञ को सिद्ध करते हैं, उन्हीं पदार्थों से सब मनुष्यों को सब कार्य्य सिद्ध करने चाहियें॥९॥ अठाहरवें सूक्त में कहे हुए बृहस्पति आदि पदार्थों के साथ इस सूक्त से जिन अग्नि वा वायु का प्रतिपादन है, उनकी विद्या की एकता होने से इस उन्नीसवें सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। इस अध्याय में अग्नि और वायु आदि पदार्थों की विद्या के उपयोग के लिये प्रतिपादन और पवनों के साथ रहनेवाले अग्नि का प्रकाश करता हुआ परमेश्वर अध्याय की समाप्ति को प्रकाशित करता है। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ का वर्णन किया है॥यह प्रथम अष्टक में प्रथम अध्याय, उन्नीसवाँ सूक्त और तेंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥