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उप॑ व॒ एषे॒ नम॑सा जिगी॒षोषासा॒नक्ता॑ सु॒दुघे॑व धे॒नुः। स॒मा॒ने अह॑न्वि॒मिमा॑नो अ॒र्कं विषु॑रूपे॒ पय॑सि॒ सस्मि॒न्नूध॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa va eṣe namasā jigīṣoṣāsānaktā sudugheva dhenuḥ | samāne ahan vimimāno arkaṁ viṣurūpe payasi sasminn ūdhan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। वः॒। आ। इ॒षे॒। नम॑सा। जि॒गी॒षा। उ॒षसा॒नक्ता॑। सु॒दुघा॑ऽइव। धे॒नुः। स॒मा॒ने। अह॑न्। वि॒ऽमिमा॑नः। अ॒र्कम्। विषु॑ऽरूपे। पय॑सि। सस्मि॑न्। ऊध॑न् ॥ १.१८६.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:186» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्या को पाकर उद्योग करने के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (समाने) एकसे (अहन्) दिन में (अर्कम्) सत्कार करने योग्य अन्न को (विमिमानः) विशेषता से बनानेवाला मैं (उषासानक्ता) दिन-रात्रि के समान वा (धेनुः) वाणी जो (सुदुघेव) सुन्दर कामना पूरण करनेवाली उसके समान (नमसा) अन्नादि पदार्थ से (जिगीषा) जीतने की इच्छा जैसे हो वैसे (विषुरूपे) नाना प्रकार के रूपवाले (पयसि) जल और (सस्मिन्) समान (ऊधन्) दूध के निमित्त (वः) तुम लोगों के (उप, आ, ईषे) समीप सब ओर से प्राप्त होता हूँ ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो रात्रि-दिवस के समान वर्त्तमान विद्या-अविद्या को जानकर, सब समय में उद्योग कर, धेनु के समान प्राणियों का उपकार कर, दुष्टों को जीतते, वे दूध में घी के तुल्य संसार में सारभूत होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्यां प्राप्योद्योगकरणविषयमाह ।

अन्वय:

समानेऽहन्नर्कं विमिमानोऽहं उषासानक्तेव धेनुस्सुदुघेव नमसा जिगीषा यथा स्यात्तथा वो युष्मान् विषुरूपे पयसि सस्मिन्नूधन् व उपेषे ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (वः) युष्मान् (आ) समन्तात् (ईषे) (नमसा) अन्नादिना (जिगीषा) जेतुमिच्छा (उषासानक्ता) अहर्निशम् (सुदुघेव) यथा सुष्ठु कामधुक् (धेनुः) वाक् (समाने) एकस्मिन् (अहन्) अहनि दिने (विमिमानः) विशेषेण निर्माता सन् (अर्कम्) सत्कर्त्तव्यमन्नम् (विषुरूपे) विरुद्धस्वरूपे (पयसि) उदके (सस्मिन्) सर्वस्मिन्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति रेफवकारलोपः। (ऊधन्) ऊधनि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये रात्रिदिवसवद्वर्त्तमाने विद्याऽविद्ये विदित्वा सर्वस्मिन् समय उद्योगं कृत्वा धेनुवत् प्राणिन उपकृत्य दुष्टान् विजयन्ते ते दुग्धे घृतमिव संसारे सारभूता भवन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे रात्र व दिवसाप्रमाणे वर्तमान असतात. विद्या-अविद्या जाणून सर्व काळी उद्योगी असतात. धेनुप्रमाणे प्राण्यांवर उपकार करून दुष्टांना जिंकतात ते दुधात तुपाप्रमाणे जगात सारभूत असतात. ॥ ४ ॥