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सं॒गच्छ॑माने युव॒ती सम॑न्ते॒ स्वसा॑रा जा॒मी पि॒त्रोरु॒पस्थे॑। अ॒भि॒जिघ्र॑न्ती॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁgacchamāne yuvatī samante svasārā jāmī pitror upasthe | abhijighrantī bhuvanasya nābhiṁ dyāvā rakṣatam pṛthivī no abhvāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ङ्गच्छ॑माने॒ इति॑ स॒म्ऽगच्छ॑माने। यु॒व॒ती इति॑। सम॑न्ते॒ इति॒ सम्ऽअ॑न्ते। स्वसा॑रा। जा॒मी इति॑। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑। अ॒भि॒जिघ्र॑न्ती॒ इत्य॑भि॒ऽजिघ्र॑न्ती। भुव॑नस्य। नाभि॑म्। द्यावा॑। रक्ष॑तम्। पृ॒थि॒वी॒ इति॑। नः॒। अभ्वा॑त् ॥ १.१८५.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:185» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (पित्रोः) माता-पिता की (उपस्थे) गोद में (संगच्छमाने) मिलाती हुई (जामी) दो कन्याओं के समान वा (युवती) तरुण दो स्त्रियों के समान वा (समन्ते) पूर्ण सिद्धान्त जिनका उन दो (स्वसारा) बहिनियों के समान (भुवनस्य) संसार के (नाभिम्) मध्यस्थ आकर्षण को (अभि, जिघ्रन्ती) गन्ध के समान स्वीकार करती हुई (द्यावा, पृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान माता-पिताओ ! तुम (नः) हम लोगों की (अभ्वात्) अपराध से (रक्षतम्) रक्षा करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचर्य से विद्या सिद्धि किये हुए तरुण जिनको परस्पर पूर्ण प्रीति है, वे कन्या-वर सुखी हों, वैसे द्यावापृथिवी जगत् के हित के लिये वर्त्तमान हैं ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

पित्रोरुपस्थे संगच्छमाने जामी युवती समन्ते स्वसारेव भुवनस्य नाभिमभिजिघ्रन्ती द्यावापृथिवी इव हे मातापितरौ युवां नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (संगच्छमाने) सहगामिन्यौ (युवती) युवाऽवस्थास्थे स्त्रियाविव (समन्ते) सम्यगन्तो ययोस्ते (स्वसारा) भगिन्यौ (जामी) कन्ये इव (पित्रोः) (उपस्थे) अङ्के (अभिजिघ्रन्ती) (भुवनस्य) लोकजातस्य (नाभिम्) नहनं मध्यस्थमाकर्षणाख्यं बन्धनम् (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा ब्रह्मचर्य्येण कृतविद्यौ यौवनस्थौ सञ्जातप्रीती कन्यावरौ सुखिनौ स्यातां तथा द्यावापृथिव्यौ जगद्धिताय वर्त्तेते ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याप्राप्त करून तरुण कन्या व वर परस्पर प्रीतीने विवाह करून सुखी होतात. तसे द्यावा पृथ्वी जगाच्या हितासाठी विद्यमान असतात. ॥ ५ ॥