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अ॒ने॒हो दा॒त्रमदि॑तेरन॒र्वं हु॒वे स्व॑र्वदव॒धं नम॑स्वत्। तद्रो॑दसी जनयतं जरि॒त्रे द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aneho dātram aditer anarvaṁ huve svarvad avadhaṁ namasvat | tad rodasī janayataṁ jaritre dyāvā rakṣatam pṛthivī no abhvāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ने॒हः। दा॒त्रम्। अदि॑तेः। अ॒न॒र्वम्। हु॒वे। स्वः॑ऽवत्। अ॒व॒धम्। नम॑स्वत्। तत्। रो॒द॒सी॒ इति॑। ज॒न॒य॒त॒म्। ज॒रि॒त्रे। द्यावा॑। रक्ष॑तम्। पृ॒थि॒वी॒ इति॑। नः॒। अभ्वा॑त् ॥ १.१८५.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:185» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (अदितेः) पृथिवी वा सूर्य के (अनेहः) न विनाशने योग्य (अनर्वम्) जिसमें अश्व का सम्बन्ध नहीं ऐसे (स्वर्वत्) सुखयुक्त तथा (अवधम्) जिसका नाश नहीं (नमस्वत्) जिसमें प्रशंसित अन्न विद्यमान उस (दात्रम्) दानपात्रमात्र का (हुवे) स्वीकार करता हूँ। हे (रोदसी) दिन रात्रि के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (तत्) उस दान कर्म को (जरित्रे) स्तुति करते हुए मेरे लिये (जनयतम्) उत्पन्न करो। हे (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (नः) हम लोगों को (अभ्वात्) अधर्म्म से (रक्षतम्) बचाओ ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो ये भूमि सूर्य और प्रत्यक्ष पदार्थ दीखते हैं, वे अविनाशी अनादिकारण से हुए है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नम्र, नीरोग

पदार्थान्वयभाषाः - १. (अदितेः) = अदीना देवमाता का [नि० ४।२२] (दात्रम्) = दान (अनेहः) = पाप से रहित है, (अनर्वम्) = क्षीणता से शून्य है, (स्वर्वत्) = प्रकाशमय व स्वर्गलोक को देनेवाला है, (अवधम्) = वध से शून्य है। 'अनर्वम्' शब्द यदि मानस विकारों को न आने देने का संकेत करता है तो 'अवधम्' शरीर के रोगों से शून्य होने का भाव दे रहा है। यह अदिति का दान (नमस्वत्) = नमस्वाला है, प्रभु के प्रति नमन की भावना से युक्त है। २. (तत्) = उस अदीना देवमाता के दान को (रोदसी) = द्यावापृथिवी (जरित्रे) = स्तोता के लिए (जनयतम्) = उत्पन्न करें। द्यावापृथिवी की अनुकूलता से हम 'निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नीरोग व नम्र' बनें। इस प्रकार (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (न:) = हमें (अभ्वात्) = बड़ी भारी आपत्ति से (रक्षतम्) = बचाएँ । ब्रह्माण्ड के सब देव हमारे इस प्रकार अनुकूल हों कि हम निष्पाप जीवनवाले हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- अदिति हमें निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नीरोग व नम्र बनाए ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

अहमदितेरनेहोऽनर्वं स्वर्वदवधं नमस्वद्दात्रं हुवे। हे रोदसी इव वर्त्तमानौ मातापितरौ तद्दात्रं जरित्रे मदर्थञ्जनयतम्। हे द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ माता-पितरौ नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनेहः) अहन्तव्यम् (दात्रम्) दानम् (अदितेः) पृथिव्याः सूर्यस्य वा (अनर्वम्) अविद्यमानाश्वम् (हुवे) स्वीकुर्वे (स्वर्वत्) सुखवत् (अवधम्) अमरणम् (नमस्वत्) नमः प्रशस्तमन्नं विद्यते यस्मिँस्तत् (तत्) (रोदसी) अहोरात्राविव (जनयतम्) (जरित्रे) स्तुतिकर्त्रे (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) सूर्य्यभूमी (नः) अस्मान् (अभ्वात्) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ये इमे भूमिसूर्य्योऽन्ये च प्रत्यक्षाः पदार्था दृश्यन्ते तेऽविनाशिनोऽनादेः कारणाज्जाता इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I invoke Mother Nature’s boundless generosity and pray for her pure and sinless gift of inviolable, brilliant and blissful, indestructible and reverential abundance of wealth of mind and material which, I crave, may heaven and earth create for the mother’s adoring child. And, I pray, may the heaven and earth save us from the violence and monstrosity of a life of materialism and sinful opulence.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The significance of the First Cause stressed.

अन्वय:

I accept the gift of the sun and the earth which are without horses or decay. They are givers of happiness, exempt from injury, and endowed with good food. O parents ! you are like the day and night. Grant such gift to me who praises you. O father and mother ! you are like the heaven and the earth, and protect us from a false conduct.

भावार्थभाषाः - The sun and the earth and all other visible articles are born out of the imperishable and eternal Primordial matter.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ही भूमी, सूर्य, प्रत्यक्ष पदार्थ दिसून येतात ते अविनाशी, अनादि कारणापासून निर्माण झालेले आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥