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इ॒दं द्या॑वापृथिवी स॒त्यम॑स्तु॒ पित॒र्मात॒र्यदि॒होप॑ब्रु॒वे वा॑म्। भू॒तं दे॒वाना॑मव॒मे अवो॑भिर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idaṁ dyāvāpṛthivī satyam astu pitar mātar yad ihopabruve vām | bhūtaṁ devānām avame avobhir vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। स॒त्यम्। अ॒स्तु॒। पितः॑। मातः॑। यत्। इ॒ह। उ॒प॒ऽब्रु॒वे। वा॒म्। भू॒तम्। दे॒वाना॑म्। अ॒व॒मे इति॑। अवः॑ऽभिर्। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१८५.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:185» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चलते हुए विषय में सत्यमात्र के उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान (मातः, पितः) माता पिताओ ! (देवानाम्) विद्वानों के (अवमे) रक्षादि व्यवहार में (भूतम्) उत्पन्न हुए (यत्) जिस व्यवहार से (इह) यहाँ (वाम्) तुम्हारे (उपब्रुवे) समीप कहता हूँ (तत्) सो (इदम्) यह (सत्यम्) सत्य (अस्तु) हो जिससे हम तुम्हारी (अवोभिः) पालनाओं से (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - माता-पिता जब सन्तानों के प्रति ऐसा उपदेश करें कि जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं, वे ही तुमको सेवने चाहियें और नहीं तथा सन्तान पिता-माता आदि अपने पालनेवालों से ऐसे कहें कि जो हमारे सत्य आचरण हैं, वे ही तुमको आचरण करने चाहियें और उनसे विपरीत नहीं ॥ ११ ॥इस सूक्त में द्यावापृथिवी के दृष्टान्त से उत्पन्न होने योग्य और उत्पादक के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पचासीवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथात्र सत्यमात्रोपदेशविषयमाह ।

अन्वय:

हे द्यावापृथिवी इव वर्त्तमाने मातः पितो देवानामवमे भूतं यदिह वामुपब्रुवे तदिदं सत्यमस्तु येन वयं युवयोरवोभिरिषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) जगत् (द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे (सत्यम्) (अस्तु) (पितः) पालक (मातः) मान्यप्रदे (यत्) (इह) (उपब्रुवे) (वाम्) युवाम् (भूतम्) निष्पन्नम् (देवानाम्) विदुषाम् (अवमे) रक्षितव्ये व्यवहारे (अवोभिः) पालनैः (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) (जीरदानुम्) ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - पितरः सन्तानान् प्रत्येवमुपदिशेयुर्यान्यस्माकं धर्म्याणि कर्माणि तान्येव युष्माभिः सेवनीयानि नो इतराणि सन्तानाः पितॄन् प्रत्येवं वदन्तु यान्यस्माकं सत्याचरणानि तान्येव युष्माभिराचरितव्यानि नातो विपरीतानि ॥ ११ ॥अत्र द्यावापृथिवीदृष्टान्तेन जन्याजनककर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति पञ्चाशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माता-पिता यांनी संतानांना असा उपदेश करावा की आमच्या धर्मयुक्त कर्मांचाच तुम्ही स्वीकार करा, इतर नव्हे व संतान पिता-माता इत्यादींनी आपल्या पालनकर्त्याला असे म्हणावे की जे आमचे सत्य आचरण आहे, त्याप्रमाणे तुम्ही वागा त्यापेक्षा वेगळे नाही. ॥ ११ ॥