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इन्द्र॑तमा॒ हि धिष्ण्या॑ म॒रुत्त॑मा द॒स्रा दंसि॑ष्ठा र॒थ्या॑ र॒थीत॑मा। पू॒र्णं रथं॑ वहेथे॒ मध्व॒ आचि॑तं॒ तेन॑ दा॒श्वांस॒मुप॑ याथो अश्विना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indratamā hi dhiṣṇyā maruttamā dasrā daṁsiṣṭhā rathyā rathītamā | pūrṇaṁ rathaṁ vahethe madhva ācitaṁ tena dāśvāṁsam upa yātho aśvinā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑ऽतमा। हि। धिष्ण्या॑। म॒रुत्ऽत॑मा। द॒स्रा। दंसि॑ष्ठा। र॒थ्या॑। र॒थिऽत॑मा। पू॒र्णम्। रथ॑म्। व॒हे॒थे॒ इति॑। मध्वः॑। आचि॑तम्। तेन॑। दा॒श्वांस॑म्। उप॑। या॒थः॒। अ॒श्वि॒ना॒ ॥ १.१८२.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:182» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) अध्यापकोपदेशक जनो ! (हि) तुम्हीं (इन्द्रतमा) अतीव ऐश्वर्य्ययुक्त (धिष्ण्या) प्रगल्भ (मरुत्तमा) अत्यन्त विद्वानों को साथ लिये हुए (दस्रा) दुःख के दूर करनेवाले (दंसिष्ठा) अतीव पराक्रमी (रथ्या) रथ चलाने में श्रेष्ठ और (रथीतमा) प्रशंसित पराक्रमयुक्त हों और (मध्वः) मधु से (आचितम्) भरे हुए (पूर्णम्) शस्त्र और अस्त्रों से परिपूर्ण जिस (रथम्) रथ को (वहेथे) प्राप्त होते हो (तेन) और उससे (दाश्वांसम्) विद्या देनेवाले जन के (उप, याथः) समीप जाते हो वे हम लोगों को नित्य सत्कार करने योग्य हों ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जो बिजुली, अग्नि, जल और वायु इनसे चलाये हुए रथ पर स्थित हो देशदेशान्तर को जाते हैं, वे परिपूर्ण धन जीतनेवाले होते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना यौ युवां हीन्द्रतमा धिष्ण्या मरुत्तमा दस्रा दंसिष्ठा रथ्या रथीतमा स्थः। मध्व आचितं पूर्णं शस्त्रास्त्रैः परिपूर्णं यं रथं वहेथे तेन दाश्वांसमुपयाथस्तावस्माभिर्नित्यं सत्कर्त्तव्यौ ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रतमा) अतिशयेनैश्वर्ययुक्तौ (हि) (धिष्ण्या) प्रगल्भौ (मरुत्तमा) अतिशयेन विद्वद्युक्तौ (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (दंसिष्ठा) अतिशयेन दंसितारौ पराक्रमिणौ (रथ्या) रथेषु साधू (रथीतमा) प्रशंसितरथयुक्तौ (पूर्णम्) (रथम्) रमणीयं यानम् (वहेथे) प्राप्नुथः (मध्वः) मधुना तृतीयार्थे षष्ठी (आचितम्) सहितम् (तेन) (दाश्वांसम्) विद्यादातारम् (उप) (याथः) प्राप्नुथः (अश्विना) विद्युत्पवनाविव सकलविद्याव्यापिनौ ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - ये विद्युदग्निजलवायुभिश्चालितं रथमास्थाय देशदेशान्तरं गच्छन्ति तेऽलंधनविजया जायन्ते ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्युत, अग्नी, जल व वायू यांच्याद्वारे चालविणाऱ्या रथावर स्थित राहून देशदेशांतरी जातात ते धनावर विजय मिळवितात (धन जिंकून आणतात) ॥ २ ॥