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ता क॒र्माष॑तरास्मै॒ प्र च्यौ॒त्नानि॑ देव॒यन्तो॑ भरन्ते। जुजो॑ष॒दिन्द्रो॑ द॒स्मव॑र्चा॒ नास॑त्येव॒ सुग्म्यो॑ रथे॒ष्ठाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā karmāṣatarāsmai pra cyautnāni devayanto bharante | jujoṣad indro dasmavarcā nāsatyeva sugmyo ratheṣṭhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। क॒र्म॒। अष॑ऽतरा। अ॒स्मै॒। प्र। च्यौ॒त्नानि॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। भ॒र॒न्ते॒। जुजो॑षत्। इन्द्रः॑। द॒स्मऽव॑र्चाः। नास॑त्याऽइव। सुग्म्यः॑। र॒थे॒ऽस्थाः ॥ १.१७३.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:173» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (देवयन्तः) अपने को विद्वानों की इच्छा करनेवाले सज्जन (अस्मै) जिन (अषतरा) अतीव प्राप्त पदार्थों और (च्यौत्नानि) इस आगे कहने योग्य ऐश्वर्य चाहनेवाले सभापति आदि के लिये स्तुतियों को (प्र, भरन्ते) उत्तमता से धारण करते हैं (ता) उनको (दस्मवर्चाः) शत्रुओं में जिसका पराक्रम वर्त्त रहा है वह (सुग्म्यः) सुख साधन पदार्थों में उत्तम (रथेष्ठाः) रथ में बैठनेवाला (इन्द्रः) ऐश्वर्य चाहता हुआ (नासत्येव) सूर्य और चन्द्रमा के समान (जुजोषत्) सेवे वैसे हम लोग (कर्म) करें ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य-चन्द्रमा के समान शुभ गुण, कर्म, स्वभावों से प्रकाशित, आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्माओं के तुल्य आचरण करते हैं, वे क्या-क्या सुख नहीं पाते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा देवयन्तोऽस्मै याऽषतरा च्यौत्नानि प्र भरन्ते ता दस्मवर्चाः सुग्म्यो रथेष्ठा इन्द्रो नासत्येव ता जुजोषत्तथा वयं कर्म ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तानि (कर्म) कर्म्म। अत्र लुङि च्लेर्लुक् छन्दस्युभयथेत्यार्द्धधातुकत्वेन ङित्वाभावाद्गुणः। (अषतरा) प्राप्ततराणि। अत्र ऋष धातो रेफस्य लोपः। (अस्मै) (प्र) प्रकर्षे (च्यौत्नानि) स्तोत्राणि (देवयन्तः) आत्मनो देवान् विदुष इच्छन्तः (भरन्ते) दधति (जुजोषत्) जुषेत (इन्द्रः) ऐश्वर्यमिच्छुः (दस्मवर्चाः) दस्मेषु शत्रुषु वर्चस्तेजः प्रागल्भ्यं यस्य सः (नासत्येव) सूर्याचन्द्रमसाविव (सुग्म्यः) सुगेषु सुखाधिकरणेषु साधुः (रथेष्ठाः) यो रथे तिष्ठति सः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये सूर्याचन्द्रवच्छुभगुणकर्मस्वभावैः प्रकाशिता आप्तवदाचरन्ति ते किं किं सुखन्नाप्नुवन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सूर्य-चंद्राप्रमाणे शुभ गुण, कर्म स्वभावाने प्रकाशित, आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्म्याप्रमाणे आचरण करतात ते कोणते सुख प्राप्त करू शकत नाहीत? ॥ ४ ॥