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नक्ष॒द्धोता॒ परि॒ सद्म॑ मि॒ता यन्भर॒द्गर्भ॒मा श॒रद॑: पृथि॒व्याः। क्रन्द॒दश्वो॒ नय॑मानो रु॒वद्गौर॒न्तर्दू॒तो न रोद॑सी चर॒द्वाक् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nakṣad dhotā pari sadma mitā yan bharad garbham ā śaradaḥ pṛthivyāḥ | krandad aśvo nayamāno ruvad gaur antar dūto na rodasī carad vāk ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नक्ष॑त्। होता॑। परि॑। सद्म॑। मि॒ता। यन्। भर॑त्। गर्भ॑म्। आ। श॒रदः॑। पृ॒थि॒व्याः। क्रन्द॑त्। अश्वः॑। नय॑मानः। रु॒वत्। गौः। अ॒न्तः। दू॒तः। न। रोद॑सी॒ इति॑। च॒र॒त्। वाक् ॥ १.१७३.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:173» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (होता) ग्रहण करनेवाला (मिता) प्रमाणयुक्त (सद्म) घरों को (नक्षत्) प्राप्त होवे वा (शरदः) शरद ऋतु सम्बन्धी (पृथिव्याः) पृथिवी के (गर्भम्) गर्भ को (आ, भरत्) पूरा करता वा (नयमानः) पदार्थों को पहुँचाता हुआ (अश्वः) घोड़े के समान (क्रन्दत्) शब्द करता वा (गौः) वृषभ के समान (रुवत्) शब्द करता वा (दूतः) समाचार पहुँचानेवाले दूत के (न) समान वा (वाग्) वाणी के समान (रोदसी) आकाश और पृथिवी के (अन्तः) बीच (चरत्) विचरता वैसे आप लोग (परि, यन्) पर्यटन करें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे घोड़ा और गौएँ परिमित मार्ग को जाती हैं, वैसे अग्नि नियत किये हुए देशस्थान को जाता है, जैसे धार्मिक जन अपने पदार्थ लेते हैं, वैसे ऋतु अपने चिह्नों को प्राप्त होते हैं, वा जैसे द्यावापृथिवी एक साथ वर्त्तमान हैं, वैसे विवाह किये हुए स्त्री-पुरुष वर्त्तें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेणोपदेशविषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा होताग्निर्मिता सद्म नक्षच्छरदः पृथिव्या गर्भमाभरत् नयमानोऽश्वइव क्रन्दत्। गौरिव रुवद्दूतो न वागिव वा रोदसी अन्तश्चरत्तथा भवन्तः परियन् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नक्षत्) प्राप्नुयात् (होता) ग्रहीता (परि) सर्वतः (सद्म) सद्मानि स्थानानि (मिता) मितानि (यन्) गच्छेयुः। अत्राडभावः। (भरत्) भरेत् (गर्भम्) (आ) (शरदः) (पृथिव्याः) भूमेः (क्रन्दत्) ह्वयति (अश्वः) तुरङ्ग इव (नयमानः) (रुवत्) शब्दायते (गौः) वृषभ इव (अन्तः) मध्ये (दूतः) समाचारप्रापकः (न) इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (चरत्) प्राप्नोति (वाक्) वाणी ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाऽश्वो गावश्च परिमितं मार्गं गच्छन्ति तथाऽग्निर्नियतं देशं गच्छति यथा धार्मिकाः स्वकीयं वस्तु गृह्णन्ति तथा ऋतवः स्वलिङ्गान्याप्नुवन्ति यथा द्यावापृथिव्यौ सहैव वर्त्तेते तथा विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे घोडे व गाई नियत मार्गाने जातात तसा अग्नी नियतस्थानी जातो. जसे धार्मिक लोक स्वतःचे पदार्थ घेतात तसे ऋतू आपल्या चिन्हांना प्राप्त करतात. जसे द्युलोक व पृथ्वी बरोबरच आहेत तसे विवाहित स्त्री-पुरुषांनी राहावे. ॥ ३ ॥