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इन्द्रा॒वरु॑णयोर॒हं स॒म्राजो॒रव॒ आ वृ॑णे। ता नो॑ मृळात ई॒दृशे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāvaruṇayor ahaṁ samrājor ava ā vṛṇe | tā no mṛḻāta īdṛśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॒वरु॑णयोः। अ॒हम्। स॒म्ऽराजोः॑। अवः॑। आ। वृ॒णे॒। ता। नः॒। मृ॒ळा॒तः॒। ई॒दृशे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:17» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और वरुण के गुणों का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - मैं जिन (सम्राजोः) अच्छी प्रकार प्रकाशमान (इन्द्रावरुणयोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों से (अवः) रक्षा को (आवृणे) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ, और (ता) वे (ईदृशे) चक्रवर्त्ति राज्य सुखस्वरूप व्यवहार में (नः) हम लोगों को (मृळातः) सुखयुक्त करते हैं॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे प्रकाशमान, संसार के उपकार करने, सब सुखों के देने, व्यवहारों के हेतु और चक्रवर्त्ति राजा के समान सब की रक्षा करनेवाले सूर्य्य और चन्द्रमा हैं, वैसे ही हम लोगों को भी होना चाहिये॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रेन्द्रावरुणगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

अहं ययोः सम्राजोरिन्द्रावरुणयोः सकाशादव आवृणे तावीदृशे नोऽस्मान् मृडातः॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रावरुणयोः) इन्द्रश्च वरुणश्च तयोः सूर्य्याचन्द्रमसोः। इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) वरुण इति च। (निघं०५.४) अनेन व्यवहारप्रापकौ गृह्येते। (अहम्) होमशिल्पादिकर्मानुष्ठाता (सम्राजोः) यौ सम्यग्राजेते दीप्येते तयोः (अवः) अवनं रक्षणम्। अत्र भावेऽसुन्। (आ) समन्तात् (वृणे) स्वीकुर्वे (ता) तौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (नः) अस्मान् (मृळातः) सुखयतः। अत्र लडर्थे लेट्। (ईदृशे) चक्रवर्त्तिराज्यसुखस्वरूपे व्यवहारे॥१॥
भावार्थभाषाः - यथा प्रकाशमानौ जगदुपकारकौ सर्वसुखव्यवहारहेतु चक्रवर्त्तिराज्यवद्रक्षकौ सूर्य्याचन्द्रमसौ वर्त्तेते तथैवाऽस्माभिरपि भवितव्यम्॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

पूर्वोक्त सोळाव्या सूक्ताचे अनुयोगी मित्र व वरुण यांच्या अर्थाचे या सूक्ताबरोबर प्रतिपादन करून या सतराव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर सोळाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती लावली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - जसे प्रकाशमान, जगाचे उपकारकर्ते, सर्व सुखदाते, व्यवहाराचे कारण व चक्रवर्ती राजाप्रमाणे सर्वांचे रक्षक सूर्य व चंद्र आहेत, तसे आम्हीही व्हावे. ॥ १ ॥