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जोष॒द्यदी॑मसु॒र्या॑ स॒चध्यै॒ विषि॑तस्तुका रोद॒सी नृ॒मणा॑:। आ सू॒र्येव॑ विध॒तो रथं॑ गात्त्वे॒षप्र॑तीका॒ नभ॑सो॒ नेत्या ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

joṣad yad īm asuryā sacadhyai viṣitastukā rodasī nṛmaṇāḥ | ā sūryeva vidhato rathaṁ gāt tveṣapratīkā nabhaso netyā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जोष॑त्। यत्। ई॒म्। अ॒सु॒र्या॑। स॒चध्यै॑। विसि॑तऽस्तुका। रो॒द॒सी। नृ॒ऽमनाः॑। आ। सू॒र्याऽइ॑व। वि॒ध॒तः। रथ॑म्। गा॒त्। त्वे॒षऽप्र॑तीका। नभ॑सः। न। इ॒त्या ॥ १.१६७.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:167» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (असुर्या) मेघों में प्रसिद्ध (विषितस्तुका) विविध प्रकार की जिसकी स्तुति सम्बन्धी और (नृमणाः) जो अग्रगामी जनों में चित्त रखती हुई (ईम्) जल के (सचध्यै) संयोग के लिये (सूर्येव) सूर्य की दीप्ति के समान (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (जोषत्) सेवे अर्थात् उनके गुणों में रमे वा (त्वेषप्रतीका) प्रकाश की प्रतीति करानेवाली और (इत्या) प्राप्त होने के योग्य होती हुई (नभसः) जल सम्बन्धी (रथम्) रमण करने योग्य रथ के (न) समान व्यवहार की और (विधतः) ताड़ना करनेवालों को (आ, गात्) प्राप्त होती वह स्त्री प्रवर है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अग्नि बिजुलीरूप से सबको सब प्रकार से व्याप्त होकर प्रकाशित करती है, वैसे सब विद्या उत्तम शिक्षाओं को पाकर स्त्री समग्र कुल को प्रशंसित करती है ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यद्योऽसुर्या विषितस्तुका नृमणा ईं सचध्यै सूर्येव रोदसी जोषत् त्वेषप्रतीकेत्या सती नभसो रथं न विधतश्चागात् प्रवरा स्त्री वर्त्तते ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जोषत्) सेवेत (यत्) यः (ईम्) जलम् (असुर्या) असुरेषु मेघेषु भवा (सचध्यै) सचितुं संयोक्तुम् (विषितस्तुका) विविधतया सिता बद्धा स्तुका स्तुतिर्यया सा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (नृमणाः) नृषु नायकेषु मनो यस्याः सा (आ) (सूर्येव) यथा सूर्यस्य दीप्तिः (विधतः) ताडयितॄन् (रथम्) रमणीयं यानं व्यवहारञ्च (गात्) गच्छति (त्वेषप्रतीका) त्वेषस्य प्रकाशस्य प्रतीतिकारिका (नभसः) जलस्य (न) इव (इत्या) प्राप्तुं योग्या ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽग्निर्विद्युद्रूपेण सर्वमभिव्याप्य प्रकाशयति तथा सर्वा विद्यासुशिक्षाः प्राप्य स्त्री समग्रं कुलं प्रशंसयति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी अग्निरूपी विद्युत सर्वप्रकारे व्याप्त होऊन सर्वांना प्रकाशित करते तसे सर्व विद्या उत्तम शिक्षण प्राप्त करून स्त्री संपूर्ण कुलाला प्रशंसित करते. ॥ ५ ॥