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श॒तभु॑जिभि॒स्तम॒भिह्रु॑तेर॒घात्पू॒र्भी र॑क्षता मरुतो॒ यमाव॑त। जनं॒ यमु॑ग्रास्तवसो विरप्शिनः पा॒थना॒ शंसा॒त्तन॑यस्य पु॒ष्टिषु॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śatabhujibhis tam abhihruter aghāt pūrbhī rakṣatā maruto yam āvata | janaṁ yam ugrās tavaso virapśinaḥ pāthanā śaṁsāt tanayasya puṣṭiṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒तभु॑जिऽभिः। तम्। अ॒भिऽह्रु॑तेः। अ॒घात्। पूः॒ऽभिः। र॒क्ष॒त॒। म॒रु॒तः॒। यम्। आव॑त। जन॑म्। यम्। उ॒ग्राः॒। त॒व॒सः॒। वि॒ऽर॒प्शि॒नः॒। पा॒थन॑। शंसा॑त्। तन॑यस्य। पु॒ष्टिषु॑ ॥ १.१६६.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तनयस्य) सन्तान की (पुष्टिषु) पुष्टि करनेवाले कामों में प्रयत्न करते हुए (उग्राः) तेजस्वी तीव्र प्रतापयुक्त (तवसः) अत्यन्त बढ़े हुए बल से युक्त (विरप्शिनः) पूर्ण विद्या पूर्ण शिक्षा और पूर्ण पराक्रमवाले (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान विद्वानो ! तुम (शतभुजिभिः) असङ्ख्य सुख भोगने को जिनका शील (पूर्भिः) पूरण, पालन और सुखयुक्त नगरों के साथ (यम्) जिसकी (अभिह्रुतेः) सब ओर से कुटिल (अघात्) पाप से (रक्षत) रक्षा करो बचाओ वा (यम्) जिस (जनम्) जन को (आवत) पालो वा जिसकी (शंसात्) आत्मप्रशंसारूप दोष से (पाथन) पालना करो (तम्) उसकी हम लोग भी सब ओर से रक्षा करें ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य युक्त आहार-विहार, उत्तम शिक्षा, ब्रह्मचर्य और विद्यादि गुणों से अपने सन्तानों को पुष्टियुक्त, सत्य की प्रशंसा करनेवाले और पाप से अलग रहनेवाले करते और प्राण के समान प्रजा को आनन्दित करते हैं, वे अनन्त सुखभोक्ता होते हैं ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे तनयस्य पुष्टिषु प्रयतमानां उग्रास्तवसो विरप्शिनो मरुतो यूयं शतभुजिभिः पूर्भिः सह यमभिह्रुतेरघाद्रक्षत यं जनमावत यं शंसात्पाथन तं वयमपि सर्वतो रक्षेम ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शतभुजिभिः) शतमसङ्ख्यं सुखं भोक्तुं शीलं येषान्तैः (तम्) (अभिह्रुतेः) अभितः कुटिलात् (अघात्) पापात् (पूर्भिः) पूरणपालनसुखयुक्तैर्नगरैः (रक्षत)। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (मरुतः) वायवइव वर्त्तमानाः (यम्) (आवत) पालयत (जनम्) (यम्) (उग्राः) तेजस्विनः (तवसः) प्रवृद्धबलाः (विरप्शिनः) पूर्णविद्याशिक्षावीर्याः (पाथन) रक्षत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (शंसात्) आत्मस्तुतिरूपात् दोषात् (तनयस्य) अपत्यस्य (पुष्टिषु) पुष्टिकरणेषु कर्म्मसु ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या युक्ताऽहारविहारसुशिक्षाब्रह्मचर्यविद्याभिः स्वसन्तानान् पुष्टियुक्तान् सत्यप्रशंसिनः पापात् पृथग्भूताँश्च कुर्वन्ति प्राणवत्प्रजा आनन्दयन्ति च तेऽनन्तसुखा भवन्ति ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे युक्त आहारविहार, उत्तम शिक्षण, ब्रह्मचर्य व विद्या इत्यादी गुणांनी आपल्या संतानांना पुष्ट करतात, सत्याची प्रशंसा करतात व पापापासून दूर राहतात, ती प्राणाप्रमाणे प्रजेला आनंदित करतात व अनंत सुख भोगतात. ॥ ८ ॥