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यत्त्वे॒षया॑मा न॒दय॑न्त॒ पर्व॑तान्दि॒वो वा॑ पृ॒ष्ठं नर्या॒ अचु॑च्यवुः। विश्वो॑ वो॒ अज्म॑न्भयते॒ वन॒स्पती॑ रथी॒यन्ती॑व॒ प्र जि॑हीत॒ ओष॑धिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yat tveṣayāmā nadayanta parvatān divo vā pṛṣṭhaṁ naryā acucyavuḥ | viśvo vo ajman bhayate vanaspatī rathīyantīva pra jihīta oṣadhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। त्वे॒षऽया॑माः। न॒दय॑न्त। पर्व॑तान्। दि॒वः। वा॒। पृ॒ष्ठम्। नर्याः॑। अचु॑च्यवुः। विश्वः॑। वः॒। अज्म॑न्। भ॒य॒ते॒। वन॒स्पतिः॑। र॒थि॒यन्ती॑ऽइव। प्र। जि॒ही॒ते॒। ओष॑धिः ॥ १.१६६.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (यत्) जब (त्वेषयामाः) अग्नि का प्रकाश होने से गमन करनेवाले (नर्याः) मनुष्यों के लिये अत्यन्त साधक तुम्हारे रथ (दिवः) अन्तरिक्ष के (पर्वतान्) मेघों को (नदयन्त) शब्दायमान करते अर्थात् तुम्हारे रथों के वेग से अपने स्थान से तितर-वितर हुए मेघ गर्जनादि शब्द करते हैं (वा) अथवा पृथिवी के (पृष्ठम्) पृष्ठ भाग को (अचुच्यवुः) प्राप्त होते तब (विश्वः, वनस्पतिः) समस्त वृक्ष (रथियन्तीव) अपने रथी को चाहती हुई सेना के समान (वः) तुम्हारे (अज्मन्) मार्ग में (भयते) कँपता है अर्थात् जो वृक्ष मार्ग में होता वह थरथरा उठता और (ओषधिः) सोमादि ओषधि (प्र, जिहीते) अच्छे प्रकार स्थान त्याग कर देती अर्थात् कपकपाहट में स्थान से तितर-वितर होती है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अन्तरिक्ष के मार्गों में विद्वानों के प्रयोग किये हुए आकाशगामी यानों के अत्यन्त वेग से कभी मेघों के तितर-वितर जाने का सम्भव और पृथिवी के कम्पन से वृक्ष वनस्पति के कम्पने का सम्भव होता है ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो यत्त्वेषयामा नर्या युष्मद्रथा दिवः पर्वतान्नदयन्त भुवः पृष्ठं वाऽचुच्यवुः तदा विश्वो वनस्पती रथियन्तीव वोऽज्मन्भयते ओषधिश्च प्रजिहीते ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (त्वेषयामाः) त्वेषे दीप्तौ सत्यां यामो गमनं येषान्ते (नदयन्त) नादयन्ति (पर्वतान्) मेघान् (दिवः) अन्तरिक्षस्य (वा) (पृष्ठम्) उपरिभागम् (नर्याः) नृभ्यो हिताः (अचुच्यवुः) प्राप्नुवन्ति (विश्वः) (वः) युष्माकम् (अज्मन्) अज्मनि पथि (भयते) कम्पते (वनस्पतिः) वनस्पतिर्वृक्षः (रथियन्तीव) आत्मनो रथिन इच्छन्तीव सेना (प्र) (जिहीते) प्राप्नोति (ओषधिः) सोमादिः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। अन्तरिक्षप्रदेशेषु विद्वद्भिः प्रयुक्ताकाशयानानां महत्तरेण वेगेन कदाचिन्मेघविपर्याससम्भवस्तथा पृथिव्याः कम्पनेन वृक्षादीनां कम्पनसम्भवश्च ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांच्या प्रयोगामुळे अंतरिक्षात याने अत्यंत वेगाने जातात, तेव्हा कधी कधी मेघ इकडे तिकडे विखुरण्याची शक्यता असते व पृथ्वीच्या कंपनाने वृक्ष वनस्पती कंपित होण्याची शक्यता असते. ॥ ५ ॥