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नित्यं॒ न सू॒नुं मधु॒ बिभ्र॑त॒ उप॒ क्रीळ॑न्ति क्री॒ळा वि॒दथे॑षु॒ घृष्व॑यः। नक्ष॑न्ति रु॒द्रा अव॑सा नम॒स्विनं॒ न म॑र्धन्ति॒ स्वत॑वसो हवि॒ष्कृत॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nityaṁ na sūnum madhu bibhrata upa krīḻanti krīḻā vidatheṣu ghṛṣvayaḥ | nakṣanti rudrā avasā namasvinaṁ na mardhanti svatavaso haviṣkṛtam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नित्य॑म्। न। सू॒नुम्। मधु॑। बिभ्र॑तः। उप॑। क्रीळ॑न्ति। क्री॒ळाः। वि॒दथे॑षु। घृष्व॑यः। नक्ष॑न्ति। रु॒द्राः। अव॑सा। न॒म॒स्विन॑म्। न। म॒र्ध॒न्ति॒। स्वऽत॑वसः। ह॒विः॒ऽकृत॑म् ॥ १.१६६.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जो लोग (नित्यम्) नाशरहित जीव के (न) समान (मधु) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (सूनुम्) पुत्र के समान (उप, क्रीडन्ति) समीप खेलते हैं वा (विदथेषु) संग्रामों में (घृष्वयः) शत्रु के बल को सहने और (क्रीडाः) खेलनेवाले (नक्षन्ति) प्राप्त होते हैं वा (रुद्रः) प्राणों के समान (अवसा) रक्षा आदि कर्म से (नमस्विनम्) बहुत अन्नयुक्त जन को (न) नहीं (मर्द्धन्ति) लड़ाते और (स्वतवसः) अपना बल पूर्ण रखते हुए (हविष्कृतम्) दानों से सिद्ध किये हुए पदार्थ को रखते हैं उसका नित्य सेवन करो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सबके उपकार में प्राण के समान तृप्ति करने में जल अन्न के समान और आनन्द में सुन्दर लक्षणोंवाली विदुषी के पुत्र के समान वर्त्तमान हैं, वे श्रेष्ठों को बढ़ा और दुष्टों को नमा सकते हैं अर्थात् श्रेष्ठों को उन्नति दे सकते और दुष्टों को नम्र कर सकते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं ये नित्यं न मधु बिभ्रतः सूनुमुप क्रीळन्ति विदथेषु घृष्वयः क्रीळा नक्षन्ति रुद्राइवावसा नमस्विनं न मर्द्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतं रक्षन्ति तान्नित्यं सेवध्वम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नित्यम्) नाशरहितं जीवम् (न) इव (सूनुम्) अपत्यम् (मधु) मधुरादिगुणयुक्तम् (बिभ्रतः) धरतः (उप) सामीप्ये (क्रीळन्ति) (क्रीळाः) क्रीडकाः (विदथेषु) संग्रामेषु (घृष्वयः) सोढारः (नक्षन्ति) प्राप्नुवन्ति (रुद्राः) प्राणा इव (अवसा) रक्षणाद्येन (नमस्विनम्) बह्वन्नयुक्तम् (न) निषेधे (मर्द्धन्ति) योधयन्ति (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषान्ते (हविष्कृतम्) हविर्भिर्दानैर्निष्पादितम् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये सर्वेषामुपकारे प्राणवत्तर्पणे जलान्नवदानन्दे सुलक्षणाऽपत्यवद्वर्त्तन्ते ते श्रेष्ठान् वर्द्धितुं दुष्टान्नमयितुं शक्नुवन्ति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सर्वांवर उपकार करण्यात प्राणाप्रमाणे, तृप्ती करण्यात अन्न व जलाप्रमाणे व आनंदात सुंदर लक्षणयुक्त विदुषीच्या पुत्राप्रमाणे आहेत ते श्रेष्ठांची वाढ करून दुष्टांना नमवू शकतात. अर्थात् श्रेष्ठांची उन्नती करू शकतात व दुष्टांना नम्र बनवू शकतात. ॥ २ ॥