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ए॒ष व॒: स्तोमो॑ मरुत इ॒यं गीर्मा॑न्दा॒र्यस्य॑ मा॒न्यस्य॑ का॒रोः। एषा या॑सीष्ट त॒न्वे॑ व॒यां वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣa vaḥ stomo maruta iyaṁ gīr māndāryasya mānyasya kāroḥ | eṣā yāsīṣṭa tanve vayāṁ vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षः। वः॒। स्तोमः॑। म॒रु॒तः॒। इ॒यम्। गीः। मा॒न्दा॒र्यस्य॑। मा॒न्यस्य॑। का॒रोः। आ। इषा। या॒सी॒ष्ट॒। त॒न्वे॑। व॒याम्। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१६६.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) विद्वानो ! (वः) तुम्हारा जो (एषः) यह (स्तोमः) स्तुति और (मान्दार्यस्य) आनन्द करनेवाले धर्मात्मा (मान्यस्य) सत्कार करने योग्य (कारोः) अत्यन्त यत्न करते हुए जन की (इयम्) यह (गीः) वाणी और जिस क्रिया को (तन्वे) शरीर के लिये (इषा) इच्छा के साथ कोई (आ, यासीष्ट) अच्छे प्रकार प्राप्त हो उस क्रिया (इषम्) अन्न (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (वयाम्) हम लोग (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विद्वानों की स्तुति कर, शास्त्रज्ञ धर्मात्माओं की वाणी सुन, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ा दीर्घजीवन प्राप्त करना चाहिये ॥ १५ ॥इस सूक्त में मरुच्छब्दार्थ से विद्वानों के गुण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ छियासठवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मरुतो वो य एष स्तोमो मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोरियं गीर्वर्त्तते यां तन्वे इषा कश्चिदायासीष्ट तामिषं वृजनं जीरदानुञ्च वयां विद्याम ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) (वः) युष्माकम् (स्तोमः) स्तवनम् (मरुतः) विद्वांसः (इयम्) (गीः) वाणी (मान्दार्यस्य) आनन्दिनो धार्मिकस्य (मान्यस्य) सत्कर्त्तुं योग्यस्य (कारोः) प्रयतमानस्य (आ) (इषा) इच्छया (यासीष्ट) प्राप्नुयात् (तन्वे) शरीराय (वयाम्) वयम्। वर्णव्यत्ययेनाऽत्र दीर्घः। (विद्याम) प्राप्नुयाम (इषम्) अन्नम् (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) जीवनम् ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विदुषां स्तुतिं कृत्वा आप्तस्य वाचं श्रुत्वा शरीरात्मबलं वर्द्धयित्वा दीर्घं जीवनं प्राप्तव्यमिति ॥ १५ ॥अत्र मरुद्विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति षट्षष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांची स्तुती करून शास्त्रज्ञ धर्मात्म्यांची वाणी ऐकून, शरीर व आत्म्याचे बल वाढवून दीर्घायू बनले पाहिजे. ॥ १५ ॥