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येन॑ दी॒र्घं म॑रुतः शू॒शवा॑म यु॒ष्माके॑न॒ परी॑णसा तुरासः। आ यत्त॒तन॑न्वृ॒जने॒ जना॑स ए॒भिर्य॒ज्ञेभि॒स्तद॒भीष्टि॑मश्याम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yena dīrgham marutaḥ śūśavāma yuṣmākena parīṇasā turāsaḥ | ā yat tatanan vṛjane janāsa ebhir yajñebhis tad abhīṣṭim aśyām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

येन॑। दी॒र्घम्। म॒रु॒तः॒। शू॒शवा॑म। यु॒ष्माके॑न। परी॑णसा। तु॒रा॒सः॒। आ। यत्। त॒तन॑म्। वृ॒जने॑। जना॑सः। ए॒भिः। य॒ज्ञेभिः॑। तत्। अ॒भि। इष्टि॑म्। अ॒श्या॒म् ॥ १.१६६.१४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (तुरासः) शीघ्रता करनेवाले (मरुतः) पवन के समान विद्याबलयुक्त विद्वानो ! हम लोग (येन) जिस (युष्माकेन) आप लोगों के सम्बन्ध के (परीणसा) बहुत उपदेश से (दीर्घम्) दीर्घ अत्यन्त लम्बे ब्रह्मचर्य को प्राप्त होके (शूशवाम) वृद्धि को प्राप्त हों जिससे (जनासः) विद्या से प्रसिद्ध मनुष्य (वृजने) बल के निमित्त (यत्) जिस क्रिया को (आ, ततनन्) विस्तारें (तत्) उस (अभीष्टिम्) सब प्रकार से चाही हुई क्रिया को (एभिः) इन (यज्ञेभिः) विद्वानों के सङ्गरूपयज्ञों से मैं (अश्याम्) पाऊँ ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - जिनके सहाय से मनुष्य बहुत विद्या, धन और बलवाले हों, उनकी नित्य वृद्धि करें, विद्वान् जन जैसे धर्म का आचरण करें, वैसा ही और भी जन करें ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे तुरासो मरुतो वयं येन युष्माकेन परीणसोपदेशेन दीर्घं प्राप्य शूशवाम येन जनासो वृजने यद्यामाततनन्तत्तामभीष्टिमेभिर्यज्ञेभिरहमश्याम् ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) (दीर्घम्) प्रलम्बितं ब्रह्मचर्यम् (मरुतः) वायुवद्विद्याबलिष्ठाः (शूशवाम) वर्द्धेमहि (युष्माकेन) युष्माकं सम्बन्धेन। अत्र वा च्छन्दसीत्यनण्यपि युष्माकादेशः। (परीणसा) बहुना। परीणसा इति बहुना०। निघं० ३। १। (तुरासः) त्वरितारः (आ) (यत्) याम् (ततनन्) तन्वन्तु (वृजने) बले (जनासः) विद्यया प्रसिद्धाः (एभिः) (यज्ञेभिः) विद्वत्सङ्गैः (तत्) ताम् (अभि) (इष्टिम्) (अश्याम्) प्राप्नुयाम् ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - येषां सहायेन मनुष्या बहुविद्याधनबलाः स्युस्तान्नित्त्यं वर्द्धयेयुः। विद्वांसो यादृशं धर्ममाचरेयुस्तादृशमितरेऽप्याचरन्तु ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्यांच्या साह्याने माणसे पुष्कळ विद्या, धर्म व बल प्राप्त करतात, त्यांची नित्य वृद्धी करावी. विद्वान लोक जसे धर्माचे आचरण करतात तसेच इतरांनीही करावे. ॥ १४ ॥