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तद्वो॑ जामि॒त्वं म॑रुत॒: परे॑ यु॒गे पु॒रू यच्छंस॑ममृतास॒ आव॑त। अ॒या धि॒या मन॑वे श्रु॒ष्टिमाव्या॑ सा॒कं नरो॑ दं॒सनै॒रा चि॑कित्रिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad vo jāmitvam marutaḥ pare yuge purū yac chaṁsam amṛtāsa āvata | ayā dhiyā manave śruṣṭim āvyā sākaṁ naro daṁsanair ā cikitrire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। वः॒। जा॒मि॒ऽत्वम्। म॒रु॒तः॒। परे॑। यु॒गे। पु॒रु। यत्। शंस॑म्। अ॒मृ॒ता॒सः॒। आव॑त। अ॒या। धि॒या। मन॑वे। श्रु॒ष्टिम्। आव्य॑। सा॒कम्। नरः॑। दं॒सनैः॑। आ। चि॒कि॒त्रि॒रे॒ ॥ १.१६६.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:166» मन्त्र:13 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अमृतासः) मृत्युधर्मरहित (मरुतः) प्राणों के समान अत्यन्त प्रिय विद्वान् जनो ! (परे, युगे) परले वर्ष में वा परजन्म में (यत्) जो (वः) तुम लोगों का (पुरु) बहुत (जामित्वम्) सुख-दुःख का भोग वर्त्तमान है (तत्) उसको (शंसम्) प्रशंसारूप (आवत) रक्खो और (अया) इस (धिया) बुद्धि से (मनवे) मनुष्य के लिये (श्रुष्टिम्) प्राप्त होने योग्य वस्तु की (आव्य) रक्षा कर (नरः) धर्मयुक्त व्यवहारों में मनुष्यों को पहुँचानेवाले मनुष्य (साकम्) तुम्हारे साथ (दंसनैः) शुभ-अशुभ सुख-दुःख फलों की प्राप्ति करानेवाले कर्मों से (आ, चिकित्रिरे) सबको अच्छे प्रकार जानें ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु इस सृष्टि में और वर्त्तमान प्रलय में वर्त्तमान हैं, वैसे नित्य जीव हैं तथा जैसे वायु जड़ वस्तु को भी नीचे ऊपर पहुँचाते हैं, वैसे जीव भी कर्मों के साथ पिछले, बीच के और अगले समय में समय और अपने कर्मों के अनुसार चक्कर खाते फिरते हैं ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अमृतासो मरुतः परे युगे यद्वः पुरु जामित्वं वर्त्तते तच्छंसमावत। अया धिया मनवे श्रुष्टिमाव्य नरः साकं युष्माभिः सह दंसनैः सर्वानाचिकित्रिरे ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (वः) युष्माकम् (जामित्वम्) सुखदुःखभोगम् (मरुतः) प्राणवत् प्रियतमाः (परे) (युगे) वर्षे परजन्मनि वा (पुरु) बहु (यत्) (शंसम्) प्रशंसाम् (अमृतासः) मृत्युरहिताः (आवत) (अया) अनया (धिया) प्रज्ञया (मनवे) मनुष्याय (श्रुष्टिम्) प्राप्तव्यं वस्तु (आव्य) रक्षित्वा (साकम्) युष्मत् सत्सङ्गेन (नरः) धर्म्येषु जनानां नेतारः (दंसनैः) शुभाऽशुभसुखदुःखप्रापकैः कर्मभिः (आ) (चिकित्रिरे) जानत ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवोऽत्र सृष्टौ वर्त्तमाने प्रलये च वर्त्तन्ते तथा नित्या जीवास्सन्ति यथा वायवो जडमपि वस्तु अधऊर्ध्वं नयन्ति तथा जीवा अपि कर्मभिः सह पूर्वस्मिन्मध्ये आगामिनि च समये यथाकालं यथाकर्म भ्रमन्ति ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू या सृष्टीत व प्रलयामध्ये वर्तमान असतात तसे नित्य जीव असतात व जसे वायू जड वस्तुलाही खालीवर नेतात, तसे जीवही कर्मांबरोबर मागच्या, मधल्या व पुढच्या वेळी काळ व आपले कर्म यानुसार भ्रमण करतात. ॥ १३ ॥