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कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑न॒: सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ इ॒त्था। सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ अ॒स्मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kutas tvam indra māhinaḥ sann eko yāsi satpate kiṁ ta itthā | sam pṛcchase samarāṇaḥ śubhānair voces tan no harivo yat te asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कुतः॑। त्वम्। इ॒न्द्र॒। माहि॑नः। सन्। एकः॑। या॒सि॒। स॒त्ऽप॒ते॒। किम्। ते॒। इ॒त्था। सम्। पृ॒च्छ॒से॒। स॒म्ऽअ॒रा॒णः। शु॒भा॒नैः। वो॒चेः। तत्। नः॒। ह॒रि॒ऽवः॒। यत्। ते॒। अ॒स्मे इति॑ ॥ १.१६५.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:165» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (सत्पते) सज्जनों के पालनेवाले ! (माहिनः) महिमायुक्त (एकः) इकिले (सन्) होते हुए (त्वम्) आप सूर्य के समान (कुतः) कहाँ से (यासि) जाते हैं (ते) आपका (इत्था) इस प्रकार से (किम्) क्या है। हे (हरिवः) प्रशंसित गुणोंवाले ! (समराणः) अच्छे प्रकार प्राप्त हुए आप (यत्) जो (ते) आपके मन में (अस्मे) हम लोगों के लिये वर्त्तता है (तत्) उसको (शुभानैः) उत्तम वचनों से (नः) हम लोगों के प्रति (वोचेः) कहो जिससे आप (सं पृच्छसे) सम्यक् पूछते भी हैं अर्थात् हमारी व्यवस्था आप पूछते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य एकाएकी सबको खींचके आप प्रकाशमान होता है वा जैसे आप्त विद्वान् सर्वत्र भ्रमण करता हुआ सबको सत्य पालनेवाले करता है, वैसे तू कहाँ जाता है ? कहाँ से आता है ? क्या करता है ? यह पूछता हूँ, उत्तर कह। धर्मयुक्त मार्गों को जाता हूँ। गुरुकुल से आता हूँ। पढ़ाना वा उपदेश करता हूँ। यह समाधान है ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र सत्पते माहिन एकः सँस्त्वं सूर्य इव कुतो यासि त इत्था किमस्ति। हे हरिवः समराणस्त्वं यत्ते मनस्यस्मे वर्त्तते तच्छुभानैर्नोऽस्मान् वोचेर्यतस्त्वं संपृच्छसे च ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कुतः) कस्मात् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (माहिनः) महिमायुक्तः। अत्र महेरिनण् चेत्युणादौ सिद्धः। (सन्) (एकः) असहायः (यासि) गच्छसि (सत्पते) सतां पालक (किम्) (ते) (इत्था) अनेन (हेतुना) (सम्) (पृच्छसे) (समराणः) सम्यक् प्राप्नुवन् (शुभानैः) शुभैर्वचनैः (वोचेः) उच्याः (तत्) (नः) अस्मान् (हरिवः) प्रशस्ता हरयो हरणगुणा विद्यन्ते यस्मिँस्तत्सम्बुद्धौ (यत्) (ते) तव (अस्मे) अस्माकम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य एकाकी सर्वानाकृष्य प्रकाशते। यथाऽऽप्तो विद्वान् सर्वत्र भ्राम्यन् सर्वान् सत्यपालकान् करोति तथा त्वं क्व गच्छसि कस्मादायासि किं करोषीति पृच्छामि। वदस्वोत्तरम्। धर्म्ये मार्गे गच्छामि। गुरुकुलादायामि। अध्यापनमुपदेशञ्च करोमीति समाधानम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य एकटा सर्वांना आकर्षित करून स्वतः प्रकाशमान होतो, जसा आप्त विद्वान सर्वत्र भ्रमण करून सर्वांना सत्यपालन करायला लावतो, तसे तू कुठे जातोस? कुठून येतोस? काय करतोस हे विचारल्यावर उत्तर सांग की धर्ममार्गाने चालतो. गुरुकुलाहून येतो. अध्यापन व उपदेश करतो हे त्याचे निराकरण आहे. ॥ ३ ॥