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यु॒क्ता मा॒तासी॑द्धु॒रि दक्षि॑णाया॒ अति॑ष्ठ॒द्गर्भो॑ वृज॒नीष्व॒न्तः। अमी॑मेद्व॒त्सो अनु॒ गाम॑पश्यद्विश्वरू॒प्यं॑ त्रि॒षु योज॑नेषु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuktā mātāsīd dhuri dakṣiṇāyā atiṣṭhad garbho vṛjanīṣv antaḥ | amīmed vatso anu gām apaśyad viśvarūpyaṁ triṣu yojaneṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒क्ता। मा॒ता। आ॒सी॒त्। धु॒रि। दक्षि॑णायाः। अति॑ष्ठत्। गर्भः॑। वृ॒ज॒नीषु॑। अ॒न्तरिति॑। अमी॑मेत्। व॒त्सः। अनु॑। गाम्। अ॒प॒श्य॒त्। वि॒श्व॒ऽरू॒प्य॑म्। त्रि॒षु। योज॑नेषु ॥ १.१६४.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (गर्भः) ग्रहण करने के योग्य पदार्थ (वृजनीषु) वर्जनीय कक्षाओं में (अन्तः) भीतर (अतिष्ठत्) स्थिर होता है, जिसके (दक्षिणायाः) दाहिनी (धुरि) धारण करनेवाली धुरि में (माता) पृथिवी (युक्ता) जड़ी हुई (आसीत्) है। और (वत्सः) बछड़ा (गाम्) गौ को जैसे-वैसे (अमीमेत्) प्रक्षेप करता है तथा (त्रिषु) तीन (योजनेषु) बन्धनों में (विश्वरूप्यम्) समस्त पदार्थों में हुए भाव को (अन्वपश्यत्) अनुकूलता से देखता है वह पदार्थविद्या के जानने को योग्य है ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गर्भरूप मेघ चलते हुए बद्दलों में विराजमान है, वैसे सबको मान्य देनेवाली भूमि आकर्षणों में युक्त है। जैसे बछड़ा गौ के पीछे जाता है, वैसे यह भूमि सूर्य का अनुभ्रमण करती है, जिसमें समस्त सुपेद, हरे, पीले, लाल आदि रूप हैं, वही सबका पालन करनेवाली है ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यो गर्भो वृजनीष्वन्तरतिष्ठत् यस्य दक्षिणाया धुरि माता युक्ताऽऽसीत् वत्सो गामिवामीमेत् त्रिषु योजनेषु विश्वरूप्यमन्वपश्यत् स पदार्थविद्यां ज्ञातुमर्हति ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युक्ता) (माता) पृथिवी (आसीत्) (धुरि) या धरति तस्याम् (दक्षिणायाः) दक्षिणस्याम् (अतिष्ठत्) तिष्ठति (गर्भः) ग्रहीतव्यः (वृजनीषु) वर्जनीयासु कक्षासु (अन्तः) मध्ये (अमीमेत्) प्रक्षिपति (वत्सः) (अनु) (गाम्) (अपश्यत्) पश्यति (विश्वरूप्यम्) विश्वेषु अखिलेषु रूपेषु भवम् (त्रिषु) (योजनेषु) बन्धनेषु ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गर्भरूपो मेघो गच्छत्सु घनेषु विराजते तथा सर्वेषां मान्यप्रदा भूमिराकर्षणेषु युक्तास्ति यथा वत्सो गामनुगच्छति तथेयं सूर्यमनुभ्रमति यस्यां सर्वाणि शुक्लादीनि रूपाणि सन्ति सैव सर्वेषां पालिकास्ति ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे गर्भरूप मेघ भ्रमण करणाऱ्या घनात विराजमान असतात. तसे सर्वांना मान्य असणारी भूमी आकर्षणांनी युक्त आहे. जसे वासरू गाईमागे जाते तसे ही भूमी सूर्याचे अनुभ्रमण करते जिच्यामध्ये संपूर्ण शुभ्र, हिरवे, पिवळे, लाल रूप आहे तीच सर्वांचे पालन करते. ॥ ९ ॥