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गौ॒रीर्मि॑माय सलि॒लानि॒ तक्ष॒त्येक॑पदी द्वि॒पदी॒ सा चतु॑ष्पदी। अ॒ष्टाप॑दी॒ नव॑पदी बभू॒वुषी॑ स॒हस्रा॑क्षरा पर॒मे व्यो॑मन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gaurīr mimāya salilāni takṣaty ekapadī dvipadī sā catuṣpadī | aṣṭāpadī navapadī babhūvuṣī sahasrākṣarā parame vyoman ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गौ॒रीः। मि॒मा॒य॒। स॒लि॒लानि॑। तक्ष॑ती। एक॑ऽपदी। द्वि॒ऽपदी॑। सा। चतुः॑ऽपदी। अ॒ष्टाऽप॑दी। नव॑ऽपदी। ब॒भू॒वुषी॑। स॒हस्र॑ऽअक्षरा। प॒र॒मे। विऽओ॑मन् ॥ १.१६४.४१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:41 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:41


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विदुषी के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! जो (एकपदी) एक वेद का अभ्यास करनेवाली वा (द्विपदी) दो वेद जिसने अभ्यास किये वा (चतुष्पदी) चार वेदों की पढ़ानेवाली वा (अष्टापदी) चार वेद और चार उपवेदों की विद्या से युक्ता वा (नवपदी) चार वेद, चार उपवेद और व्याकरणादि शिक्षायुक्त (बभूवुषी) अतिशय करके विद्याओं में प्रसिद्ध होती और (सहस्राक्षरा) असंख्यात अक्षरोंवाली होती हुई (परमे) सबसे उत्तम (व्योमन्) आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और (गौरीः) गौरवर्णयुक्त विदुषी स्त्रियों को (मिमाय) शब्द कराती अर्थात् (सलिलानि) जल के समान निर्मल वचनों को (तक्षती) छाँटती अर्थात् अविद्यादि दोषों से अलग करती हुई (सा) वह संसार के लिये अत्यन्त सुख करनेवाली होती है ॥ ४१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्री समस्त साङ्गोपाङ्ग वेदों को पढ़के पढ़ाती हैं, वे सब मनुष्यों की उन्नति करती हैं ॥ ४१ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विदुषीविषयमाह ।

अन्वय:

हे स्त्रीपुरुषा यैकपदी द्विपदी चतुष्पदी अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा सती परमे व्योमन् प्रयतते गौरीर्विदुषीर्मिमाय सलिलानीव तक्षती सा विश्वकल्याणकारिका भवति ॥ ४१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गौरीः) गौरवर्णाः (मिमाय) शब्दायते (सलिलानि) जलानीव निर्मलानि वचनानि (तक्षती) (एकपदी) एकवेदाभ्यासिनी (द्विपदी) अभ्यस्तद्विवेदा (सा) (चतुष्पदी) चतुर्वेदाध्यापिका (अष्टापदी) वेदोपवेदविद्यायुक्ता (नवपदी) चतुर्वेदोपवेदव्याकरणदिशिक्षायुक्ता (बभूवुषी) अतिशयेन विद्यासु भवन्ती (सहस्राक्षरा) सहस्राणि असंख्यातान्यक्षराणि यस्याः सा (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) व्योमवद्व्याप्तेऽक्षुब्धे। अयं निरुक्ते व्याख्यातः निरु० ११। ४० ॥ ४१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या स्त्रियः सर्वान् साङ्गोपाङ्गान् वेदानधीत्याध्यापयन्ति ताः सर्वान् मनुष्यानुन्नयन्ति ॥ ४१ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या स्त्रिया संपूर्ण सांगोपांग वेदाचे अध्ययन अध्यापन करतात त्या सर्व माणसांना उन्नत करतात. ॥ ४१ ॥