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द्यौर्मे॑ पि॒ता ज॑नि॒ता नाभि॒रत्र॒ बन्धु॑र्मे मा॒ता पृ॑थि॒वी म॒हीयम्। उ॒त्ता॒नयो॑श्च॒म्वो॒३॒॑र्योनि॑र॒न्तरत्रा॑ पि॒ता दु॑हि॒तुर्गर्भ॒माधा॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyaur me pitā janitā nābhir atra bandhur me mātā pṛthivī mahīyam | uttānayoś camvor yonir antar atrā pitā duhitur garbham ādhāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्यौः। मे॒। पि॒ता। ज॒नि॒ता। नाभिः॑। अत्र॑। बन्धुः॑। मे॒। मा॒ता। पृ॒थि॒वी। म॒ही। इ॒यम्। उ॒त्ता॒नयोः॑। च॒म्वोः॑। योनिः॑। अ॒न्तः। अत्र॑। पि॒ता। दु॒हि॒तुः। गर्भ॑म्। आ। अ॒धा॒त् ॥ १.१६४.३३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:33 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:33


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! जहाँ (पिता) पितृस्थानी सूर्य (दुहितुः) कन्या रूप उषा प्रभात वेला के (=में) (गर्भम्) किरणरूपी वीर्य को (आ, अधात्) स्थापित करता है वहाँ (चम्वोः) दो सेनाओं के समान स्थित (उत्तानयोः) उपरिस्थ ऊँचे स्थापित किये हुए पृथिवी और सूर्य के (अन्तः) बीच मेरा (योनिः) घर है (अत्र) इस जन्म में (मे) मेरा (जनिता) उत्पन्न करनेवाला (पिता) पिता (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य बिजुली के समान तथा (अत्र) यहाँ (मे) मेरा (नाभिः) बन्धनरूप (बन्धुः) भाई के समान प्राण और (इयम्) यह (मही) बड़ी (पृथिवी) भूमि के समान (माता) मान देनेवाली माता वर्त्तमान है यह जानना चाहिये ॥ ३३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। भूमि और सूर्य सबके माता-पिता और बन्धु के समान वर्त्तमान है, यही हमारा निवासस्थान है। जैसे सूर्य अपने से उत्पन्न हुई उषा के बीच किरणरूपी वीर्य को संस्थापन कर दिनरूपी पुत्र को उत्पन्न करता है, वैसे माता-पिता प्रकाशमान पुत्र को उत्पन्न करें ॥ ३३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेण तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वन् यत्र पिता दुहितुर्गर्भमाधात् तत्र चम्वोरिव स्थितयोरुत्तानयोरन्तो मम योनिरस्ति। अत्र मे जनिता पिता द्योरिवाऽत्र मे नाभिर्बन्धुरियं मही पृथिवीव माता वर्त्तत इति वेद्यम् ॥ ३३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यो विद्युदिव (मे) मम (पिता) (जनिता) (नाभिः) बन्धनम् (अत्र) अस्मिन् जन्मनि (बन्धुः) भ्रातृवत् प्राणः (मे) मम (माता) मान्यप्रदा जननी (पृथिवी) भूमिरिव (मही) महती (इयम्) (उत्तानयोः) उपरिस्थयोरूर्ध्वं स्थापितयोः पृथिवीसूर्ययोः (चम्वोः) सेनयोरिव (योनिः) गृहम् (अन्तः) मध्ये (अत्र) अस्मिन्। अत्र ऋचि तुनुघ इति दीर्घः। (पिता) सूर्यः (दुहितुः) उषसः (गर्भम्) किरणाख्यं वीर्यम् (आ) (अधात्) समन्ताद्दधाति ॥ ३३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। भूमिसूर्यौ सर्वेषां मातापितृबन्धुवद्वर्तेते इदमेवाऽस्माकं निवासस्थानं यथा सूर्यः स्वस्मादुत्पन्नाया उषसो मध्ये किरणाख्यं वीर्यं संस्थाप्य दिनं पुत्रं जनयति तथैव पितरौ प्रकाशमानं पुत्रमुत्पादयेताम् ॥ ३३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. भूमी व सूर्य सर्वांचे माता-पिता व बंधुप्रमाणे आहेत. हेच आमचे निवासस्थान आहे. जसा सूर्य आपल्यापासून उत्पन्न झालेल्या उषेमध्ये किरणरूपी वीर्य संस्थापन करून दिनरूपी पुत्र उत्पन्न करतो तसे माता व पिता यांनी तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करावा. ॥ ३३ ॥