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य ईं॑ च॒कार॒ न सो अ॒स्य वे॑द॒ य ईं॑ द॒दर्श॒ हिरु॒गिन्नु तस्मा॑त्। स मा॒तुर्योना॒ परि॑वीतो अ॒न्तर्ब॑हुप्र॒जा निर्ऋ॑ति॒मा वि॑वेश ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ya īṁ cakāra na so asya veda ya īṁ dadarśa hirug in nu tasmāt | sa mātur yonā parivīto antar bahuprajā nirṛtim ā viveśa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। ई॒म्। च॒कार॑। न। सः। अ॒स्य। वे॒द॒। यः। ई॒म्। द॒दर्श॑। हिरु॑क्। इत्। नु। तस्मा॑त्। सः। मा॒तुः। योना॑। परि॑ऽवीतः। अ॒न्तः। ब॒हु॒ऽप्र॒जाः। निःऽऋ॑तिम्। आ। वि॒वे॒श॒ ॥ १.१६४.३२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:32 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:32


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर जीव विषयमात्र को कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो जीव (ईम्) क्रियामात्र (चकार) करता है (सः) वह (अस्य) इस अपने रूप को (न) नहीं (वेद) जानता है (यः) जो (ईम्) समस्त क्रिया को (ददर्श) देखता और अपने रूप को जानता है (सः) वह (तस्मात्) इससे (हिरुक्) अलग होता हुआ (मातुः) माता के (योना) गर्भाशय के (अन्तः) बीच (परिवीतः) सब ओर से ढंपा हुआ (बहुप्रजाः) बहुत बार जन्म लेनेवाला (निर्ऋतिम्) भूमि को (इत्) ही (नु) शीघ्र (आ, विवेश) प्रवेश करता है ॥ ३२ ॥
भावार्थभाषाः - जो जीव कर्ममात्र करते किन्तु उपासना और ज्ञान को नहीं प्राप्त होते हैं, वे अपने स्वरूप को भी नहीं जानते। और जो कर्म, उपासना और ज्ञान में निपुण हैं, वे अपने स्वरूप और परमात्मा के जानने को योग्य हैं। जीवों के अगले जन्मों का आदि और पीछे अन्त नहीं है। जब शरीर को छोड़ते हैं तब आकाशस्थ हो गर्भ में प्रवेश कर और जन्म पाकर पृथिवी में चेष्टा क्रियावान् होते हैं ॥ ३२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्जीवविषयमात्रमाह ।

अन्वय:

यो जीव ईं चकार सोऽस्य स्वरूपं न वेद य ईं ददर्श स्वस्वरूपम् पश्यति स तस्माद्धिरुक् सन्मातुर्योनान्तः परिवीतो बहुप्रजा निर्ऋतिमिन्वाविवेश ॥ ३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जीवः (ईम्) क्रियाम् (चकार) करोति (न) (सः) (अस्य) जीवस्य स्वरूपम् (वेद) (यः) (ईम्) सर्वां क्रियाम् (ददर्श) पश्यति (हिरुक्) पृथक् (इत्) एव (नु) सद्यः (तस्मात्) (सः) (मातुः) जनन्याः (योना) गर्भाशये (परिवीतः) परितं आवृतः (अन्तः) मध्ये (बहुप्रजाः) बहुजन्मा (निर्ऋतिम्) भूमिम् (आ) (विवेश) आविशति ॥ ३२ ॥
भावार्थभाषाः - ये जीवाः कर्ममात्रं कुर्वन्ति नोपासनां ज्ञानं च प्राप्नुवन्ति ते स्वस्वरूपमपि न जानन्ति। ये च कर्मोपासनाज्ञानेषु निपुणास्ते स्वस्वरूपं परमात्मानञ्च वेदितुमर्हन्ति। जीवानां प्राग्जन्मनामादिरुत्तरेषामन्तश्च न विद्यते। यदा शरीरं त्यजन्ति तदाऽऽकाशस्था भूत्वा गर्भे प्रविश्य जनित्वा पृथिव्यां चेष्टावन्तो भवन्ति ॥ ३२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे जीव कर्म करतात; परंतु उपासना व ज्ञान प्राप्त करीत नाहीत ते आपल्या स्वरूपालाही जाणत नाहीत व जे कर्म उपासना व ज्ञानात निपुण आहेत ते आपल्या स्वरूपाला व परमात्म्याला जाणू शकतात. जीवाचा आरंभ व अन्त नाही. जेव्हा ते शरीराचा त्याग करतात तेव्हा आकाशात राहून नंतर गर्भात प्रवेश करतात व जन्म प्राप्त झाल्यावर पृथ्वीवर प्रयत्नशील व क्रियाशील होतात. ॥ ३२ ॥