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जग॑ता॒ सिन्धुं॑ दि॒व्य॑स्तभायद्रथंत॒रे सूर्यं॒ पर्य॑पश्यत्। गा॒य॒त्रस्य॑ स॒मिध॑स्ति॒स्र आ॑हु॒स्ततो॑ म॒ह्ना प्र रि॑रिचे महि॒त्वा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jagatā sindhuṁ divy astabhāyad rathaṁtare sūryam pary apaśyat | gāyatrasya samidhas tisra āhus tato mahnā pra ririce mahitvā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जग॑ता। सिन्धु॑म्। दि॒वि। अ॒स्त॒भा॒य॒त्। र॒थ॒म्ऽत॒रे। सूर्य॑म्। परि॑। अ॒प॒श्य॒त्। गा॒य॒त्रस्य॑। स॒म्ऽइधः॑। ति॒स्रः। आ॒हुः॒। ततः॑। म॒ह्रा। प्र। रि॒रि॒चे॒। म॒हि॒ऽत्वा ॥ १.१६४.२५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:25 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:25


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो जगदीश्वर (जगता) संसार के साथ (सिन्धुम्) नदी आदि को (दिवि) प्रकाश (रथन्तरे) और अन्तरिक्ष में (सूर्यम्) सवितृलोक को (अस्तभायत्) रोकता व सबको (पर्य्यपश्यत्) सब ओर से देखता है वा जिन (गायत्रस्य) गायत्री छन्द से अच्छे प्रकार से साधे हुए ऋग्वेद की उत्तेजना से (तिस्रः, समिधः) अच्छे प्रकार प्रज्वलित तीन पदार्थों को अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान तीनों काल के सुखों को (आहुः) कहते हैं (ततः) उनसे (मह्ना) बड़े (महित्वा) प्रशंसनीय भाव से (प्र, रिरिचे) अलग होता है अर्थात् अलग गिना जाता है वह सबको पूजने योग्य है ॥ २५ ॥
भावार्थभाषाः - जब ईश्वर ने जगत् बनाया तभी नदी और समुद्र आदि बनाये। जैसे सूर्य आकर्षण से भूगोलों को धारण करता है, वैसे सूर्य आदि जगत् को ईश्वर धारण करता है। जो सब जीवों के समस्त पाप पुण्यरूपी कर्म्मों को जानके फलों को देता है, वह ईश्वर सब पदार्थों से बड़ा है ॥ २५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यो जगदीश्वरो जगता सिन्धु दिवि रथन्तरे सूर्यमस्तभायत् सर्वं पर्यपश्यत् या गायत्रस्य सकाशात्तिस्रः समिध आहुस्ततो मह्ना महित्वा प्ररिरिचे स सर्वैः पूज्योऽस्ति ॥ २५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जगता) संसारेण सह (सिन्धुम्) नद्यादिकम् (दिवि) प्रकाशे (अस्तभायत्) स्तभ्नाति (रथन्तरे) अन्तरिक्षे (सूर्यम्) सवितृलोकम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) पश्यति (गायत्रस्य) गायत्र्या संसाधितस्य (समिधः) सम्यक् प्रदीप्ताः पदार्थाः (तिस्रः) त्रित्वसंख्यायुक्ताः (आहुः) कथयन्ति (ततः) (मह्ना) महता (प्र) (रिरिचे) प्ररिणक्ति (महित्वा) महित्वेन पूज्येन ॥ २५ ॥
भावार्थभाषाः - यदा ईश्वरेण जगन्निर्मितं तदैव नदीसमुद्रादीनि निर्मितानि। यथा सूर्य आकर्षणेन भूगोलान् धरति तथा सूर्यादिकं जगदीश्वरो धरति। यस्सर्वेषां जीवानां सर्वाणि पापपुण्यात्मकानि कर्माणि विज्ञाय फलानि प्रयच्छति स सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो महानस्ति ॥ २५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा ईश्वराने जग उत्पन्न केले तेव्हा नदी व समुद्र इत्यादी निर्माण केलेले आहेत. जसा सूर्य आकर्षणाने भूगोल धारण करतो तसे सूर्य इत्यादींना ईश्वर धारण करतो. जो सर्व जीवाच्या पाप-पुण्यरूपी कर्मांना जाणून फळ देतो तो ईश्वर सर्व पदार्थांहून महान आहे. ॥ २५ ॥