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यदश्व॑स्य क्र॒विषो॒ मक्षि॒काश॒ यद्वा॒ स्वरौ॒ स्वधि॑तौ रि॒प्तमस्ति॑। यद्धस्त॑योः शमि॒तुर्यन्न॒खेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ अपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad aśvasya kraviṣo makṣikāśa yad vā svarau svadhitau riptam asti | yad dhastayoḥ śamitur yan nakheṣu sarvā tā te api deveṣv astu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अश्व॑स्य। क्र॒विषः॑। मक्षि॑का। आश॑। यत्। वा॒। स्वरौ॑। स्वऽधि॑तौ। रि॒प्तम्। अस्ति॑। यत्। हस्त॑योः। श॒मि॒तुः। यत्। न॒खेषु॑। सर्वा॑। ता। ते॒। अपि॑। दे॒वेषु। अ॒स्तु॒ ॥ १.१६२.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (क्रविषः) क्रमणशील अर्थात् चाल से पैर रखनेवाले (अश्वस्य) घोड़ा का (यत्) जिस (रिप्तम्) लिये हुए मल को (मक्षिका) शब्द करती अर्थात् भिनभिनाती हुई माखी (आश) खाती है (वा) अथवा (यत्) जो (स्वधितौ) आप धारण किये हुए (स्वरौ) हींसना और कष्ट से चिल्लाना है (शमितुः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले के (हस्तयोः) हाथों में (यत्) जो है और (यत्) जो (नखेषु) जिनमें आकाश नहीं विद्यमान है उन नखों में (अस्ति) है (ता) वे (सर्वा) समस्त पदार्थ (ते) तुम्हारे हों तथा यह सब (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी (अस्तु) हो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - भृत्यों को घोड़े दुर्गन्ध लेप रहित शुद्ध, माखी और डाँश से रहित रखने चाहिये, अपने हाथ तथा रज्जु आदि से उत्तम नियम कर अपने इच्छानुकूल चाल चलवाना चाहिये, ऐसे करने से घोड़े उत्तम काम करते हैं ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वन् क्रविषोऽश्वस्य यद्रिप्तम्मक्षिकाश वा यद्या स्वधितौ स्वरौ स्तः शमितुर्हस्तयोर्यदस्ति यच्च नखेष्वस्ति ता सर्वा ते सन्त्वेद्देवेष्वप्यस्तु ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) (अश्वस्य) (क्रविषः) क्रमणशीलस्य। अत्र क्रमधातोरौणादिक इसिः प्रत्ययो वर्णव्यत्येन मस्य वः। (मक्षिका) मशति शब्दायते या सा (आश) अश्नाति (यत्) (वा) (स्वरौ) शब्दोपतापौ (स्वधितौ) स्वेन धृतौ (रिप्तम्) लिप्तम् (अस्ति) (यत्) (हस्तयोः) (शमितुः) यज्ञानुष्ठातुः (यत्) (नखेषु) न विद्यते खमाकाशं येषु तेषु (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (अपि) (देवेषु) विद्वत्सु (अस्तु) ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - भृत्यैरश्वा दुर्गन्धलेपरहिताः शुद्धा मक्षिकादंशविरहा रक्षणीयाः। स्वहस्तेन रज्ज्वादिना सुनियम्य यथेष्टङ्गमयितव्याः। एवं कृते सति तुरङ्गा दिव्यानि कार्याणि कुर्वन्ति ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सेवकांनी घोड्याला दुर्गंधलेपरहित शुद्ध, माशा व डासरहित ठेवावे. आपल्या हाती लगाम ठेवून इच्छेप्रमाणे व्यवस्थित चालविले पाहिजे. असे केल्याने घोडे उत्तम काम करतात. ॥ ९ ॥