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एक॒स्त्वष्टु॒रश्व॑स्या विश॒स्ता द्वा य॒न्तारा॑ भवत॒स्तथ॑ ऋ॒तुः। या ते॒ गात्रा॑णामृतु॒था कृ॒णोमि॒ ताता॒ पिण्डा॑नां॒ प्र जु॑होम्य॒ग्नौ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ekas tvaṣṭur aśvasyā viśastā dvā yantārā bhavatas tatha ṛtuḥ | yā te gātrāṇām ṛtuthā kṛṇomi tā-tā piṇḍānām pra juhomy agnau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एकः॑। त्वष्टुः॑। अश्व॑स्य। वि॒ऽश॒स्ता। द्वा। य॒न्तारा॑। भ॒व॒तः॒। तथा॑। ऋ॒तुः। या। ते॒। गात्रा॑णाम्। ऋ॒तु॒ऽथा। कृ॒णोमि॑। ताऽता॑। पिण्डा॑नाम्। प्र। जु॒हो॒मि॒। अ॒ग्नौ ॥ १.१६२.१९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:19 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (ते) तेरी विद्या और क्रिया से सिद्ध किये हुए (त्वष्टुः) बिजुलीरूप (अश्वस्य) व्याप्त अग्नि का (एकः) एक (ऋतुः) वसन्तादि ऋतु (विशस्ता) छिन्न-भिन्न करनेवाला अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थों में लगनेवाला और (द्वा) दो (यन्तारा) उसको नियम में रखनेवाले (भवतः) होते हैं (तथा) उसी प्रकार से (या) जो (गात्राणाम्) शरीरों के (ऋतुथा) ऋतु ऋतु में काम उनको और (पिण्डानाम्) अनेक पदार्थों में सङ्घातों के जो जो अङ्ग हैं (ताता) उन उन का काम में प्रयोग मैं (कृणोमि) करता हूँ और (अग्नौ) अग्नि में (प्र, जुहोमि) होमता हूँ ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - जो सब पदार्थों के छिन्न-भिन्न करनेवाले ऋतु के अनुकूल पाये हुए पदार्थों में व्याप्त बिजुलीरूप अग्नि के काल और सृष्टिक्रम नियम करनेवालों और प्रशंसित गुणों को जान अभीष्ट कामों को सिद्ध करते हुए मोटे-मोटे लक्कड़ आदि पदार्थों को आग में छोड़ बहुत कामों को सिद्ध करें, वे शिल्पविद्या को जाननेवाले कैसे न हों ? ॥ १९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वँस्ते तव विद्याक्रियाभ्यां सिद्धस्य त्वष्टुरश्वस्याग्नेरेकऋतुर्विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथा या यानि गात्राणामृतुथा कर्माणि पिण्डानां च येऽवयवास्ताता प्रयुक्तान्यहं कृणोम्यग्नौ प्रजुहोमि ॥ १९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एकः) (त्वष्टुः) विद्युतः (अश्वस्य) व्याप्तस्य। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (विशस्ता) (द्वा) द्वौ (यन्तारा) नियन्तारौ (भवतः) (तथा) तेन प्रकारेण (ऋतुः) वसन्तादिः (या) यानि (ते) तव (गात्राणाम्) अङ्गानाम् (ऋतुथा) ऋतौ ऋतौ। अत्र वाच्छन्दसीति थाल्। (कृणोमि) (ताता) तानि तानि। (पिण्डानाम्) (प्र) (जुहोमि) क्षिपामि (अग्नौ) वह्नौ ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - ये सर्वपदार्थविच्छेदकस्य यथर्त्तुप्राप्तपदार्थेषु व्याप्तस्य वह्नेः कालसृष्टिक्रमौ नियन्तारौ प्रशंसितान् गुणान् विज्ञायाऽभीष्टानि कार्याणि साध्नुवन्तः स्थूलानि काष्ठादीनि पावके प्रक्षिप्य बहूनि कार्याणि साध्नुयुस्ते शिल्पविद्याविदः कुतो न स्युः ? ॥ १९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व पदार्थांना छिन्न छिन्न करणारा, ऋतूच्या अनुकूल पदार्थात व्याप्त असणारा विद्युत अग्नी काल व सृष्टिक्रमाचे नियमन करणारा असतो. त्याच्या प्रशंसित गुणांना जाणून अभीष्ट कार्य सिद्ध करण्यासाठी मोठमोठी लाकडे इत्यादी पदार्थ अग्नीत सोडून ते काम सिद्ध करतात. ते शिल्पविद्या जाणणारे कसे नसतील? ॥ १९ ॥