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अ॒यं दे॒वाना॑म॒पसा॑म॒पस्त॑मो॒ यो ज॒जान॒ रोद॑सी वि॒श्वश॑म्भुवा। वि यो म॒मे रज॑सी सुक्रतू॒यया॒जरे॑भि॒: स्कम्भ॑नेभि॒: समा॑नृचे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ devānām apasām apastamo yo jajāna rodasī viśvaśambhuvā | vi yo mame rajasī sukratūyayājarebhiḥ skambhanebhiḥ sam ānṛce ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। दे॒वाना॑म्। अ॒पसा॑म्। अ॒पःऽत॑मः। यः। ज॒जान॑। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒श्वऽश॑म्भुवा। वि। यः। म॒मे। रज॑सी॒ इति॑। सु॒क्र॒तु॒ऽयया॑। अ॒जरे॑भिः। स्कम्भ॑नेभिः। सम्। आ॒नृचे ॥ १.१६०.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:160» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अयम्) यह (देवानाम्) पृथिवी आदि लोकों के (अपसाम्) कर्मों के बीच (अपस्तमः) अतीव क्रियावान् है वा (यः) जो (विश्वशम्भुवा) सब में सुख की भावना करानेवाले कर्म से (रोदसी) सूर्यलोक और भूमिलोक को (जजान) प्रकट करता है वा (यः) जो (सुक्रतूयया) उत्तम बुद्धि, कर्म और (स्कम्भनेभिः) रुकावटों से और (अजरेभिः) हानिरहित प्रबन्धों के साथ (रजसी) भूमिलोक और सूर्यलोक का (वि, ममे) विविध प्रकार से मान करता उसकी मैं (समानृचे) अच्छे प्रकार स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने आदि काम जिस जगदीश्वर के होते हैं, जो निश्चय के साथ कारण से समस्त नाना प्रकार के कार्य को रचकर अनन्त बल से धारण करता है, उसीको सब लोग सदैव प्रशंसित करें ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

योऽयं देवानामपसामपस्तमो यो विश्वशम्भुवा रोदसी जजान यः सुक्रतूयया स्कम्भनेभिरजरेभी रजसी विममे तमहं समानृचे ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (देवानाम्) पृथिव्यादीनाम् (अपसाम्) कर्मणाम् (अपस्तमः) अतिशयेन क्रियावान् (यः) (जजान) प्रकटयति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (विश्वशम्भुवा) विश्वस्मिन् शं सुखं भावुकेन (वि) (यः) (ममे) मापयति (रजसी) लोकौ (सुक्रतूयया) सुष्ठु प्रज्ञया कर्मणा वा (अजरेभिः) अजरैर्हानिरहितैः प्रबन्धैः (स्कम्भनेभिः) स्तम्भनैः (सम्) (आनृचे) स्तौमि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - सृष्ट्युत्पत्तिस्थितिप्रलयकरणादीनि कर्माणि यस्य जगदीश्वरस्य भवन्ति यो हि कारणादखिलविविधं कार्यं रचयित्वाऽनन्तबलेन धरति तमेव सर्वे सदा प्रशंसन्तु ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सृष्टीची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय इत्यादी काम ज्या जगदीश्वराचे असते व जो निश्चयपूर्वक कारणापासून विविध प्रकारची कार्य निर्मिती करून अनन्त बलाने धारण करतो, त्याचीच सर्व माणसांनी प्रशंसा करावी. ॥ ४ ॥