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उ॒त म॑न्ये पि॒तुर॒द्रुहो॒ मनो॑ मा॒तुर्महि॒ स्वत॑व॒स्तद्धवी॑मभिः। सु॒रेत॑सा पि॒तरा॒ भूम॑ चक्रतुरु॒रु प्र॒जाया॑ अ॒मृतं॒ वरी॑मभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta manye pitur adruho mano mātur mahi svatavas tad dhavīmabhiḥ | suretasā pitarā bhūma cakratur uru prajāyā amṛtaṁ varīmabhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। म॒न्ये॒। पि॒तुः। अ॒द्रुहः॑। मनः॑। मा॒तुः। महि॑। स्वऽत॑वः। तत्। हवी॑मऽभिः। सु॒ऽरेत॑सा। पि॒तरा॑। भूम॑। च॒क्र॒तुः॒। उ॒रु। प्र॒ऽजायाः॑। अ॒मृत॑म्। वरी॑मऽभिः ॥ १.१५९.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:159» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! मैं अकेला (हवीमभिः) स्तुति करने योग्य गुणों के साथ जिस (अद्रुहः) द्रोहरहित (मातुः) माता (उत) और (पितुः) पिता के (स्वतवः) अपने बलवाले (महि) बड़े (मनः) मन को (उरु) बहुत (मन्ये) जानूँ (तत्) उसको (सुरेतसा) सुन्दर पराक्रमवाले (पितरा) माता-पिता के समान वर्त्तमान भूमि और सूर्य (वरीमभिः) स्वीकार करने योग्य गुणों से (प्रजायाः) मनुष्य आदि सृष्टि के लिये (अमृतम्) अमृत के समान वर्त्तमान (भूम) बड़ा उत्साहित (चक्रतुः) करते हैं अर्थात् शिल्पव्यवहारों से प्रोत्साहित करते, मलीन नहीं रहने देते हैं ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे माता-पिता लड़कों को अच्छे प्रकार पालन कर उनको बढ़ाते हैं, वैसे भूमि और सूर्य्य प्रजाजनों के लिये सुख की उन्नति करते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या अहमेकाकी हवीमभिर्यदद्रुहो मातुरुत पितुः स्वतवो महि मन उरु मन्ये तत् सुरेतसा पितरेव वर्त्तमानौ भूमिसूर्य्यौ वरीमभिः प्रजाया अमृतं भूम चक्रतुः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (मन्ये) विजानीयाम् (पितुः) जनकस्य (अद्रुहः) द्रोहरहितस्य (मनः) मननम् (मातुः) जनन्याः (महि) महत् (स्वतवः) स्वं स्वकीयं तवो बलं यस्मिँस्तत् (तत्) (हवीमभिः) स्तोतुमर्हैर्गुणैः (सुरेतसा) शोभनवीर्य्येण (पितरा) मातापितृवद्वर्त्तमाने (भूम) (चक्रतुः) कुरुतः (उरु) बहु (प्रजायाः) मनुष्यादिसृष्टये। अत्र चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। (अमृतम्) अमृतमिव वर्त्तमानम् (वरीमभिः) स्वीकर्त्तुमर्हैः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - यथा मातापितरावपत्यानि संरक्ष्य वर्द्धयतस्तथा भूमिसूर्य्यौ प्रजाभ्यः सुखमुन्नयतः ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे माता-पिता मुलांचे चांगल्या प्रकारे पालन करून त्यांना वाढवितात तसे भूमी व सूर्य प्रजेचे सुख वाढवितात. ॥ २ ॥