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यु॒वं ह॑ स्थो भि॒षजा॑ भेष॒जेभि॒रथो॑ ह स्थो र॒थ्या॒३॒॑ राथ्ये॑भिः। अथो॑ ह क्ष॒त्रमधि॑ धत्थ उग्रा॒ यो वां॑ ह॒विष्मा॒न्मन॑सा द॒दाश॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ ha stho bhiṣajā bheṣajebhir atho ha stho rathyā rāthyebhiḥ | atho ha kṣatram adhi dhattha ugrā yo vāṁ haviṣmān manasā dadāśa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। ह॒। स्थः॒। भि॒षजा॑। भे॒ष॒जेभिः॑। अथो॒ इति॑। ह॒। स्थः॒। र॒थ्या॑। रथ्ये॑भि॒रिति॒ रथ्ये॑भिः। अथो॒ इति॑। ह॒। क्ष॒त्रम्। अधि॑। ध॒त्थ॒। उ॒ग्रा॒। यः। वा॒म्। ह॒विष्मा॑न्। मन॑सा। द॒दाश॑ ॥ १.१५७.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:157» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्यादि सद्गुणों में व्याप्त सज्जनो ! (युवं, ह) तुम्हीं (भेषजेभिः) रोग दूर करनेवाले वैद्यों के साथ (भिषजा) रोग दूर करनेवाले (स्थः) हो, (अथो) इसके अनन्तर (ह) निश्चय से (राथ्येभिः) रथ पहुँचानेवाले अश्वादिकों के साथ (रथ्या) रथ में प्रवीण रथवाले (स्थः) हो, (अथो) इसके अनन्तर हे (उग्रा) तीव्र स्वभाववाले सज्जनो ! (यः) जो (हविष्मान्) बहुदानयुक्त जन (वाम्) तुम दोनों के लिये (मनसा) विज्ञान से (ददाश) देता है अर्थात् पदार्थों का अर्पण करता है (ह) उसी के लिये (क्षत्रम्) राज्य को (अधि, धत्थः) अधिकता से धारण करते हो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य विद्वान् वैद्यों का सङ्ग करते हैं तब वैद्यक विद्या को प्राप्त होते हैं। जब शूर दाता होते हैं तब राज्य धारण कर और प्रशंसित होकर निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ६ ॥।इस सूक्त में अश्वियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ सत्तावनवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥इस अध्याय में सोम आदि पदार्थों के प्रतिपादन से इस दशवें अध्याय के अर्थों की नवम अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अश्विनौ युवं ह भेषजेभिर्भिषजा स्थः। अथो ह राथ्येभी रथ्या स्थः। अथो हे उग्रा यो हविष्मान् वां मनसा ददाश तस्मै ह क्षत्रमधि धत्थः ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवाम् (ह) प्रसिद्धम् (स्थः) (भिषजा) रोगनिवारकौ (भेषजेभिः) रोगापहन्तृभिर्वैद्यैः सह (अथो) अनन्तरम् (ह) खलु (स्थः) भवथः (रथ्या) रथे साधू (राथ्येभिः) रथवाहकैः सह। अत्रान्येषामपि दृश्यत इत्याद्यचो दीर्घः। (अथो) (ह) (क्षत्रम्) राष्ट्रम् (अधि) (धत्थः) (उग्रा) उग्रौ तीव्रस्वभावौ (यः) (वाम्) युष्मभ्यम् (हविष्मान्) बहुदानयुक्तः (मनसा) विज्ञानेन (ददाश) दाशति ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - यदा मनुष्या विदुषां वैद्यानां सङ्गं कुर्वन्ति तदा वैद्यकविद्यामाप्नुवन्ति यदा शूरा दातारो जायन्ते तदा राज्यं धृत्वा प्रशंसिता भूत्वा सततं सुखिनो भवन्तीति ॥ ६ ॥ अस्मिन् सूक्तेऽश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥ इति सप्तपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥।अस्मिन्नध्याये सोमादिपदार्थप्रतिपादनादेतद्दशमाध्यायोक्तार्थानां नवमाध्यायोक्तार्थैः सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा माणसे विद्वान वैद्यांचा संग करतात तेव्हा वैद्यक विद्या प्राप्त होते. जेव्हा शूर दाते असतात तेव्हा ते राज्य धारण करून प्रशंसित होतात व निरन्तर सुखी होतात. ॥ ६ ॥