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अ॒र्वाङ्त्रि॑च॒क्रो म॑धु॒वाह॑नो॒ रथो॑ जी॒राश्वो॑ अ॒श्विनो॑र्यातु॒ सुष्टु॑तः। त्रि॒व॒न्धु॒रो म॒घवा॑ वि॒श्वसौ॑भग॒: शं न॒ आ व॑क्षद्द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvāṅ tricakro madhuvāhano ratho jīrāśvo aśvinor yātu suṣṭutaḥ | trivandhuro maghavā viśvasaubhagaḥ śaṁ na ā vakṣad dvipade catuṣpade ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्वाङ्। त्रि॒ऽच॒क्रः। म॒धु॒ऽवाह॑नः। रथः॑। जी॒रऽअ॑श्वः। अ॒श्विनोः॑। या॒तु॒। सुऽस्तु॑तः। त्रि॒ऽव॒न्धु॒रः। म॒घऽवा॑। वि॒श्वऽसौ॑भगः। शम्। नः॒। आ। व॒क्ष॒त्। द्वि॒ऽपदे॑। चतुः॑ऽपदे ॥ १.१५७.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:157» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अश्विनोः) विद्वानों की क्रिया में कुशल सज्जनों की उत्तेजना से (सुष्टुतः) सुन्दर प्रशंसित (मधुवाहनः) जल से बहाने योग्य (त्रिचक्रः) जिसमें तीन चक्कर (जीराश्वः) वेगरूप घोड़े और (त्रिबन्धुरः) तीन बन्धन विद्यमान वा (विश्वसौभगः) समस्त सुन्दर ऐश्वर्य भोग जिससे होते वह (अर्वाङ्) नीचले देश अर्थात् जल आदि से चलनेवाला (मघवा) प्रशंसित धनयुक्त (रथः) रथ (नः) हमारे (द्विपदे) द्विपाद मनुष्यादि वा (चतुष्पदे) चौपाद गौ आदि प्राणी के लिये (शम्) सुख का (आ, वक्षत्) आवाहन करावे और हम लोगों को (यातु) प्राप्त हो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को इस प्रकार प्रयत्न करना चाहिये जिससे पदार्थविद्या से प्रशंसायुक्त यानों को बनाने को समर्थ हों, ऐसे करने के विना समस्त सुख होने को योग्य नहीं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

योऽश्विनोः सुष्टुतो मधुवाहनस्त्रिचक्रो जीराश्वस्त्रिबन्धुरो विश्वसौभगोऽर्वाङ् मघवा रथो नो द्विपदे चतुष्पदे च शमावक्षत्सोऽस्मान् यातु प्राप्नोतु ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वाङ्) अर्वाङधो देशमञ्चति (त्रिचक्रः) त्रीणि चक्राणि यस्मिन् (मधुवाहनः) मधुना जलेन वाहनीयः। मध्विति उदकना०। निघं० १। १२। (रथः) (जीराश्वः) जीरा वेगा अश्वा यस्मिन् (अश्विनोः) विद्वत्क्रियाकुशलयोः सकाशात् प्राप्तः (यातु) प्राप्नोतु (सुष्टुतः) सुष्ठुप्रशंसितः (त्रिबन्धुरः) त्रयो बन्धुरा बन्धा यस्मिन् सः (मघवा) परमपूजितधनवान् (विश्वसौभगः) विश्वे सुभगाः शोभनैश्वर्य्या भोगा येन सः (शम्) सुखम् (नः) अस्माकम् (आ) (वक्षत्) वहेत (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरित्थं प्रयतितव्यं येन पदार्थविद्यया प्रशंसितानि यानानि निर्मातुं शक्नुयुः। नैवं विनाऽखिलानि सुखानि भवितुमर्हन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अशा प्रकारचा प्रयत्न केला पाहिजे, की ज्यामुळे पदार्थ विद्येद्वारे प्रशंसनीय याने तयार करण्यास समर्थ व्हावे. असे केल्याशिवाय संपूर्ण सुख मिळणे शक्य नाही. ॥ ३ ॥