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भवा॑ मि॒त्रो न शेव्यो॑ घृ॒तासु॑ति॒र्विभू॑तद्युम्न एव॒या उ॑ स॒प्रथा॑:। अधा॑ ते विष्णो वि॒दुषा॑ चि॒दर्ध्य॒: स्तोमो॑ य॒ज्ञश्च॒ राध्यो॑ ह॒विष्म॑ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhavā mitro na śevyo ghṛtāsutir vibhūtadyumna evayā u saprathāḥ | adhā te viṣṇo viduṣā cid ardhyaḥ stomo yajñaś ca rādhyo haviṣmatā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भव॑। मि॒त्रः। न। शेव्यः॑। घृ॒तऽआ॑सुतिः। विभू॑तऽद्युम्नः। ए॒व॒ऽयाः। ऊ॒आ॑म् इति॑। स॒ऽप्रथाः॑। अध॑। ते॒। वि॒ष्णो॒ इति॑। वि॒दुषा॑। चि॒त्। अर्ध्यः॑। स्तोमः॑। य॒ज्ञः। च॒। राध्यः॑। ह॒विष्म॑ता ॥ १.१५६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:156» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले एकसौ छप्पनवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें आरम्भ से विद्वान् अध्यापक-अध्येताओं के गुणों को कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विष्णो) समस्त विद्याओं में व्याप्त ! (ते) तुम्हारा जो (अर्द्ध्यः) बढ़ने (स्तोमः) और स्तुति करने योग्य व्यवहार (यज्ञः, च) और सङ्गम करने योग्य ब्रह्मचर्य नामवाला यज्ञ (हविष्मता) प्रशस्त विद्या देने और ग्रहण करने से युक्त व्यवहार से (राध्यः) अच्छे प्रकार सिद्ध करने योग्य है उसका अनुष्ठान आरम्भ कर (अध) इसके अनन्तर (शेव्यः) दूसरों को सुखी करने योग्य (मित्रः) मित्र के (न) समान (एवयाः) रक्षा करनेवालों को प्राप्त होनेवाला (उ) तर्क-वितर्क के साथ (सप्रथाः) उत्तम प्रसिद्धियुक्त (विदुषा) और आप्त उत्तम विद्वान् के साथ (चित्) भी (घृतासुतिः) जिससे घृत उत्पन्न होता (विभूतद्युम्नः) और जिससे विशेष धन वा यश हुए हो ऐसा तू (भव) हो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन जिस ब्रह्मचर्यानुष्ठानरूप यज्ञ की वृद्धि, स्तुति और उत्तमता से सिद्धि करने की इच्छा करते हैं, उसका अच्छे प्रकार सेवन कर विद्वान् होके सबका मित्र हो ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वदध्यापकाध्येतृगुणानाह ।

अन्वय:

हे विष्णो ते तव योऽर्द्ध्यः स्तोमो यज्ञश्च हविष्मता राध्योऽस्ति तं चानुष्ठायाऽध शेव्यो मित्रो न एवया उ सप्रथा विदुषा चिदपि घृतासुतिर्विभूतद्युम्नस्त्वं भव ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मित्रः) (न) इव (शेव्यः) सुखयितुं योग्यः (घृतासुतिः) घृतमासूयते येन सः (विभूतद्युम्नः) विशिष्टानि भूतानि द्युम्नानि धनानि यशांसि वा यस्य सः (एव्याः) एवान् रक्षकान् याति (उ) वितर्के (सप्रथाः) सप्रख्यातिः (अध) अनन्तरम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (विष्णो) सर्वासु विद्यासु व्यापिन् (विदुषा) आप्तेन विपश्चिता (चित्) अपि (अर्ध्यः) वर्द्धितुं योग्यः (स्तोमः) स्तोतुमर्हो व्यवहारः (यज्ञः) सङ्गन्तुमर्हो ब्रह्मचर्याख्यः (च) (राध्यः) संशोधितुं योग्यः (हविष्मता) प्रशस्तविद्यादानग्रहणयुक्तेन व्यवहारेण ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वांसो यस्य ब्रह्मचर्यानुष्ठानाख्ययज्ञस्य वृद्धिं स्तुतिं संसिद्धिं च चिकीर्षन्ति तं संसेव्य विद्वान् भूत्वा सर्वस्य मित्रं भवेत् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान, अध्यापक व अध्येता यांच्या गुणांचे वर्णन असून या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - विद्वान लोक ज्या ब्रह्मचर्यानुष्ठानरूपी यज्ञाची वृद्धी, स्तुती व उत्तमतेने सिद्धी करण्याची इच्छा करतात त्यांचे चांगल्या प्रकारे ग्रहण करून विद्वान बनून सर्वांचे मित्र व्हावे. ॥ १ ॥