वांछित मन्त्र चुनें

तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसी॒नस्य॑ त्रा॒तुर॑वृ॒कस्य॑ मी॒ळ्हुष॑:। यः पार्थि॑वानि त्रि॒भिरिद्विगा॑मभिरु॒रु क्रमि॑ष्टोरुगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tat-tad id asya pauṁsyaṁ gṛṇīmasīnasya trātur avṛkasya mīḻhuṣaḥ | yaḥ pārthivāni tribhir id vigāmabhir uru kramiṣṭorugāyāya jīvase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्ऽत॑त्। इत्। अ॒स्य॒। पौंस्य॑म्। गृ॒णी॒म॒सि॒। इ॒नस्य॑। त्रा॒तुः। अ॒वृ॒कस्य॑। मी॒ळ्हुषः॑। यः। पार्थि॑वानि। त्रि॒ऽभिः। इत्। विगा॑मऽभिः। उ॒रु। क्रमि॑ष्ट। उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥ १.१५५.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:155» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (विगामभिः) विविध प्रशंसायुक्त (त्रिभिः) तीन सत्व, रजस्, तमोगुणों के साथ (उरुगायाय) बहुत प्रशंसित (जीवसे) जीवन के लिये (पार्थिवानि) पृथिवी के विकारों से उत्पन्न हुए (इत्) ही पदार्थों को (उरु, क्रमिष्ट) क्रम से अत्यन्त प्राप्त होता है (तत्तत्) उस उस (त्रातुः) रक्षा करनेवाले (इनस्य) समर्थ ईश्वर के समान (अस्य) किये हुए ब्रह्मचर्य जितेन्द्रिय इस (अवृकस्य) चोरी आदि दोषरहित (मीढुषः) वीर्य सेचन समर्थ पुरुष के (पौंस्यम्) पुरुषार्थ की (इत्) ही हम लोग (गृणीमसि) प्रशंसा करते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सुख से चिरकाल तक जीवने के लिये दीर्घ ब्रह्मचर्य को अच्छे प्रकार सेवन कर आरोग्य और धातुओं की समता बढ़ाने से शरीर के बल और विद्या, धर्म तथा योगाभ्यास के बढ़ाने से आत्मबल की उन्नति कर सदैव सुख में रहें। जो लोग इस ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे बाल्यावस्था में स्वयंवर विवाह कभी नहीं करते, इसके विना पूर्ण पुरुषार्थ की वृद्धि की संभावना नहीं है ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यो विगामभिस्त्रिभिरुरुगायाय जीवसे यद्यत् पार्थिवानीदुरु क्रमिष्ट तत्तत् त्रातुरिनस्येवास्यावृकस्य मीढुषः पौंस्यमिद्वयं गृणीमसि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्तत्) (इत्) एव (अस्य) कृतब्रह्मचर्यस्य जितेन्द्रियस्य (पौंस्यम्) पुरुषार्थस्य भावम् (गृणीमसि) स्तुमः (इनस्य) समर्थस्येश्वरस्य (त्रातुः) रक्षकस्य (अवृकस्य) चौर्यादिदोषरहितस्य (मीढुषः) वीर्यसेचकस्य (यः) (पार्थिवानि) पृथिवीविकारजातानि (त्रिभिः) सत्वादिगुणैः (इत्) एव (विगामभिः) विविधप्रशंसायुक्तैः (उरु) बहु (क्रमिष्ट) क्रमते (उरुगायाय) बहुप्रशंसिताय (जीवसे) जीवनाय प्राणधारणाय ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सुखेन चिरंजीवनाय दीर्घं ब्रह्मचर्यं संसेव्यारोग्येण धातुसाम्यवर्द्धनेन शरीरबलं विद्याधर्मयोगाभ्यासवर्द्धनेनाऽऽत्मबलमुन्नीय सदैव सुखे स्थातव्यम्। य इमामीश्वराज्ञां पालयन्ति ते बाल्यावस्थायां स्वयंवरविवाहं कदाचिन्न कुर्वन्ति नैतेन विना पूर्णा पुरुषार्थवृद्धिः संभवति ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सुखाने दीर्घकाळ जगण्यासाठी चांगल्या प्रकारे ब्रह्मचर्याचे सेवन करावे. आरोग्य व धातूची समता वाढवून शरीराचे बल व विद्या, धर्म आणि योगाभ्यासाने आत्मबल उन्नत करून सुखात राहावे. जे लोक ईश्वराच्या या आज्ञेचे पालन करतात ते बाल्यावस्थेत स्वयंवर विवाह कधी करीत नाहीत. याशिवाय पूर्ण पुरुषार्थाची वृद्धी होणे शक्य नाही. ॥ ४ ॥