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ता ईं॑ वर्धन्ति॒ मह्य॑स्य॒ पौंस्यं॒ नि मा॒तरा॑ नयति॒ रेत॑से भु॒जे। दधा॑ति पु॒त्रोऽव॑रं॒ परं॑ पि॒तुर्नाम॑ तृ॒तीय॒मधि॑ रोच॒ने दि॒वः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā īṁ vardhanti mahy asya pauṁsyaṁ ni mātarā nayati retase bhuje | dadhāti putro varam param pitur nāma tṛtīyam adhi rocane divaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ताः। ई॒म्। व॒र्ध॒न्ति॒। महि॑। अ॒स्य॒। पौंस्य॑म्। नि। मा॒तरा॑। न॒य॒ति॒। रेत॑से। भु॒जे। दधा॑ति। पु॒त्रः। अव॑रम्। पर॑म्। पि॒तुः। नाम॑। तृ॒तीय॑म्। अधि॑। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥ १.१५५.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:155» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो विदुषी स्त्रियाँ (अस्य) इस लड़के के (रेतसे) वीर्य बढ़ाने और (भुजे) भोगादि पदार्थ प्राप्त होने के लिये (महि) अत्यन्त (पौंस्यम्) पुरुषार्थ को (ईम्) सब ओर से (वर्द्धन्ति) बढ़ाती हैं वह (ताः) उनको (नयति) प्राप्त होता है, इसमें कारण यह है कि जिससे (पुत्रः) पुत्र (पितुः) पिता और माता की उत्तेजना से शिक्षा को प्राप्त हुआ (दिवः) प्रकाशमान सूर्यमण्डल के (अधि, रोचने) ऊपरी प्रकाश में (अवरम्) निकृष्ट (परम्) उत्कृष्ट वा पिछले-अगले वा उरले और (तृतीयम्) तीसरे (नाम) नाम को तथा (नि, मातरा) निरन्तर मान करनेवाले माता-पिता को (दधाति) धारण करता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही माता-पिता हितैषी होते हैं, जो अपने सन्तानों को दीर्घ ब्रह्मचर्य से पूरी विद्या, उत्तम शिक्षा और युवावस्था को प्राप्त करा विवाह कराते हैं। वे ही प्रथम ब्रह्मचर्य, दूसरी पूरी विद्या, उत्तम शिक्षा और तृतीय युवावस्था को प्राप्त होकर सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

या विदुष्योऽस्य रेतसे भुजे महि पौंस्यमीं वर्द्धन्ति स ता नयति यतः पुत्रः पितुर्मातुश्च सकाशात्प्राप्तशिक्षो दिवोऽधिरोचनेऽवरं परं तृतीयं च नाम निमातरा च दधाति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) विदुष्यः स्त्रियः (ईम्) सर्वतः (वर्द्धन्ति) वर्द्धयन्ति (महि) महत् (अस्य) अपत्यस्य (पौंस्यम्) पुंसो भावम् (नि) नितराम् (मातरा) मान्यकर्त्तारौ मातापितरौ (नयति) प्राप्नोति (रेतसे) वीर्यस्य वर्द्धनाय (भुजे) भोगाय (दधाति) (पुत्रः) जनकपालकः (अवरम्) अर्वाचीनम् (परम्) प्रकृष्टम् (पितुः) जनकस्य सकाशात् (नाम) आख्याम् (तृतीयम्) त्रयाणां पूरकम् (अधि) उपरि (रोचने) प्रकाशे (दिवः) द्योतमानस्य सूर्यस्य ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ता एव मातापितरौ हितैषिणौ ये स्वाऽपत्यानि दीर्घब्रह्मचर्येण पूर्णा विद्याः सुशिक्षा युवावस्थाञ्च प्रापय्य विवाहयन्ति त एव प्रथमं द्वितीयं तृतीयं च पदार्थं प्राप्य सूर्यवत् सुप्रकाशात्मानो भवन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - तेच माता-पिता हितकर्ते असतात जे संतानांना दीर्घ ब्रह्मचर्याने पूर्ण विद्या, सुशिक्षण घेतल्यावर तारुण्यात विवाह करवितात. तेच प्रथम ब्रह्मचर्य, दुसरी पूर्ण विद्या, उत्तम शिक्षण व तृतीय युवावस्था प्राप्त करून सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ ३ ॥