प्र व॒: पान्त॒मन्ध॑सो धियाय॒ते म॒हे शूरा॑य॒ विष्ण॑वे चार्चत। या सानु॑नि॒ पर्व॑ताना॒मदा॑भ्या म॒हस्त॒स्थतु॒रर्व॑तेव सा॒धुना॑ ॥
pra vaḥ pāntam andhaso dhiyāyate mahe śūrāya viṣṇave cārcata | yā sānuni parvatānām adābhyā mahas tasthatur arvateva sādhunā ||
प्र। वः॒। पान्त॑म्। अन्ध॑सः। धि॒या॒ऽय॒ते। म॒हे। शूरा॑य। विष्ण॑वे। च॒। अ॒र्च॒त॒। या। सानु॑नि। पर्व॑तानाम्। अदा॑भ्या। म॒हः। त॒स्थतुः॑। अर्व॑ताऽइव। सा॒धुना॑ ॥ १.१५५.१
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब एकसौ पचपनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पढ़ाने, उपदेश करनेवाले और ब्रह्मचर्य सेवन का फल कहते हैं ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाध्यापकोपदेशकब्रह्मचर्यफलविषयमाह ।
हे मनुष्या धियायते महे शूराय विष्णवे च वोऽन्धसः पान्तं यूयं प्रार्चत याऽदाभ्या मित्रावरुणौ पर्वतानां सानुन्यर्वतेव साधुना महस्तस्थतुस्तावपि प्रार्चत ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अध्यापकोपदेशक व ब्रह्मचर्याच्या फळाचे वर्णन असल्याने याच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥