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तद॑स्य प्रि॒यम॒भि पाथो॑ अश्यां॒ नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति। उ॒रु॒क्र॒मस्य॒ स हि बन्धु॑रि॒त्था विष्णो॑: प॒दे प॑र॒मे मध्व॒ उत्स॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad asya priyam abhi pātho aśyāṁ naro yatra devayavo madanti | urukramasya sa hi bandhur itthā viṣṇoḥ pade parame madhva utsaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। अ॒स्य॒। प्रि॒यम्। अ॒भि। पाथः॑। अ॒श्या॒म्। नरः॑। यत्र॑। दे॒व॒यवः॑। मद॑न्ति। उ॒रु॒ऽक्र॒मस्य॑। सः। हि। बन्धुः॑। इ॒त्था। विष्णोः॑। प॒दे। प॒र॒मे। मध्वः॑। उत्सः॑ ॥ १.१५४.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:154» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (यत्र) जिसमें (देवयवः) दिव्य भोगों की कामना करनेवाले (नरः) अग्रगन्ता उत्तम जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) व्यापक परमात्मा के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) कूपसा तृप्ति करनेवाला गुण वर्त्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान दुःख विनाश करने से सुख देनेवाला है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो परमेश्वर की वेदद्वारा दी हुई आज्ञा के अनुकूल चलते हैं, वे मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं। जैसे जन बन्धु को प्राप्त होकर सहायता को पाते हैं वा प्यासे जन मीठे जल से पूर्ण कुये को पाकर तृप्त होते हैं, वैसे परमेश्वर को प्राप्त होकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

अहं यत्र देवयवो नरो मदन्ति तदस्योरुक्रमस्य विष्णोः प्रियं पाथोभ्यश्यां यस्य परमे पदे मध्व उत्सइव तृप्तिकरो गुणो वर्त्तते स हि इत्था नो बन्धुरिवास्ति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (अस्य) (प्रियम्) येन प्रीणाति तत् (अभि) (पाथः) वर्त्म (अश्याम्) प्राप्नुयाम् (नरः) नेतारः (यत्र) यस्मिन् (देवयवः) ये देवान् दिव्यान् भोगान् कामयन्ते (मदन्ति) आनन्दयन्ति (उरुक्रमस्य) बहुपराक्रमस्य (सः) (हि) खलु (बन्धुः) दुःखविनाशकत्वेन सुखप्रदः (इत्था) अनेन प्रकारेण (विष्णोः) व्यापकस्य (पदे) प्राप्तव्ये (परमे) अत्युत्तमे मोक्षे पदे (मध्वः) मधुरादिरसयुक्तस्य (उत्सः) कूपइव तृप्तिकरः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये परमेश्वरेण वेदद्वारा दत्तमाज्ञामनुगच्छन्ति ते मोक्षसुखमश्नुवते। यथा जना बन्धुं प्राप्य सहायं लभन्ते तृषिता वा मधुरजलं कूपं प्राप्य तृप्यन्ति तथा परमेश्वरं प्राप्य पूर्णाऽनन्दा जायन्ते ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे परमेश्वराने वेदाद्वारे दिलेल्या आज्ञेप्रमाणे वागतात ते मोक्षसुख प्राप्त करतात. जसे लोक बंधूकडून साह्य प्राप्त करतात किंवा तृषार्त लोक विहिरीद्वारे मधुर जल प्राप्त करून तृप्त होतात तसे ते परमेश्वराला प्राप्त करून आनंद भोगतात. ॥ ५ ॥