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यस्य॒ त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दान्यक्षी॑यमाणा स्व॒धया॒ मद॑न्ति। य उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्यामेको॑ दा॒धार॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya trī pūrṇā madhunā padāny akṣīyamāṇā svadhayā madanti | ya u tridhātu pṛthivīm uta dyām eko dādhāra bhuvanāni viśvā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑। त्री। पू॒र्णा। मधु॑ना। प॒दानि॑। अक्षी॑यमाणा। स्व॒धया॑। मद॑न्ति। यः। ऊँ॒ इति॑। त्रि॒ऽधातु॑। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। एकः॑। दा॒धार॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ १.१५४.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:154» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस ईश्वर के बीच (मधुना) मधुरादि गुण से (पूर्णा) पूर्ण (अक्षीयमाणा) विनाशरहित (त्री) तीन (पदानि) प्राप्त होने योग्य पद अर्थात् लोक (स्वधया) अपने-अपने रूप के धारण करने रूप क्रिया से (मदन्ति) आनन्द को प्राप्त होते हैं (यः) और जो (एकः) (उ) एक अर्थात् अद्वैत परमात्मा (पृथिवीम्) पृथिवीमण्डल (उत) और (द्याम्) सूर्यमण्डल तथा (त्रिधातु) जिनमें सत्त्व, रजस्, तमस् ये तीनों धातु विद्यमान उन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (दाधार) धारण करता है, वही परमात्मा सबको मानने योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - जो अनादि कारण से सूर्य आदि के तुल्य प्रकाशमान पृथिवियों को उत्पन्न कर समस्त भोग्य पदार्थों के साथ उनका संयोग करा सबको आनन्दित करता है, उसके गुण कर्म की उपासना से आनन्द ही सबको बढ़ाना चाहिये ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यस्य रचनायां मधुना पूर्णाऽक्षीयमाणा त्री पदानि स्वधया मदन्ति य एक उ पृथिवीमुत द्यां त्रिधातु विश्वा भुवनानि दाधार स एव परमात्मा सर्वैर्वेदितव्यः ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जगदीश्वरस्य मध्ये (त्री) त्रीणि (पूर्णा) पूर्णानि (मधुना) मधुराद्येन गुणेन (पदानि) प्राप्तुमर्हाणि (अक्षीयमाणा) क्षयरहितानि (स्वधया) स्वस्वरूपधारणया क्रियया (मदन्ति) (यः) (उ) (त्रिधातु) त्रयः सत्वरजस्तमआदिधातवो येषु तानि (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि (द्याम्) सूर्य्यम् (एकः) अद्वैतः (दाधार) धरति पोषयति वा (भुवनानि) (विश्वा) सर्वाणि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - योऽनादिकारणात् सूर्यादिप्रकाशवत् क्षितीरुत्पाद्य सर्वैर्भोग्यैः पदार्थैः सह संयोज्याऽऽनन्दयति तद्गुणकर्मोपासनेनानन्दो हि सर्वैर्वर्द्धनीयः ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अनादि कारणांपासून प्रकाशमान सूर्य, पृथ्वीला उत्पन्न करून संपूर्ण भोग्य पदार्थांबरोबर संयोग करून आनंदित करतो त्याच्या गुण, कर्म, उपासनेने सर्वांचा आनंद वाढविला पाहिजे. ॥ ४ ॥