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उ॒त वां॑ वि॒क्षु मद्या॒स्वन्धो॒ गाव॒ आप॑श्च पीपयन्त दे॒वीः। उ॒तो नो॑ अ॒स्य पू॒र्व्यः पति॒र्दन्वी॒तं पा॒तं पय॑स उ॒स्रिया॑याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta vāṁ vikṣu madyāsv andho gāva āpaś ca pīpayanta devīḥ | uto no asya pūrvyaḥ patir dan vītam pātam payasa usriyāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। वा॒म्। वि॒क्षु। मद्या॑सु। अन्धः॑। गावः॑। आपः॑। च॒। पी॒प॒य॒न्त॒। दे॒वीः। उ॒तो इति॑। नः॒। अ॒स्य। पू॒र्व्यः। पतिः॑। दन्। वी॒तम्। पा॒तम्। पय॑सः। उ॒स्रिया॑याः ॥ १.१५३.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:153» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मित्र और वरुण श्रेष्ठ जन ! जैसे (देवीः) दिव्य (गावः) वाणी (आपः, च) और जल (मद्यासु) हर्षित करने योग्य (विक्षु) प्रजाजनों में (वाम्) तुम दोनों को (पीपयन्त) उन्नति देते हैं (उत) और (अन्धः) अन्न अच्छे प्रकार देवें (उतो) और (पूर्व्यः) पूर्वजों ने नियत किया हुआ (पतिः) पालना करनेवाला (नः) हमारे (अस्य) पढ़ाने के काम सम्बन्धी (उस्रियायाः) दुग्ध देनेवाली गौ के (पयसः) दूध को (दन्) देता हुआ वर्त्तमान है, वैसे तुम दोनों विद्या को (वीतम्) व्याप्त होओ और दुग्ध (पातम्) पिओ ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यहाँ गौओं के समान सुख देनेवाले और प्राण के समान प्रिय प्रजाजनों में वर्त्तमान हैं, वे इस संसार में अतुल आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥इस सूक्त में मित्र और वरुण के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ त्रेपनवाँ सूक्त और तेईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मित्रावरुणौ यथा देवीर्गाव आपश्च मद्यासु विक्षु वां पीपयन्तोताऽन्धः प्रदद्युः। उतो पूर्व्यः पतिः नोऽस्माकमस्योस्रियायाः पयसो दन् वर्त्तते तथा युवां विद्या वीतं दुग्धं च पातम् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (वाम्) युवाम् (विक्षु) प्रजासु (मद्यासु) हर्षणीयासु (अन्धः) अन्नम् (गावः) वाण्यः (आपः) जलानि (च) (पीपयन्त) वर्द्धयन्ति (देवीः) दिव्याः (उतो) (नः) अस्माकम् (अस्य) अध्यापनकर्मणः (पूर्व्यः) पूर्वैः कृतः (पतिः) पालयिता (दन्) ददन्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (वीतम्) व्याप्नुतम् (पातम्) पिबतम् (पयसः) दुग्धस्य (उस्रियायाः) दुग्धदाया धेनोः। उस्रियेति गोना०। निघं० २। ११। ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽत्र गोवत्सुखप्रदाः प्राणवत् प्रियाः प्रजासु वर्त्तन्ते तेऽतुलमानन्दमाप्नुवन्ति ॥ ४ ॥अत्र मित्रावरुणगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति त्रिपञ्चाशदुत्तरं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे गाईप्रमाणे सुख देणारे व प्राणाप्रमाणे प्रजेत प्रिय आहेत ते या जगात अतुल आनंद प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥