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यत्त्वा॑ तु॒रीय॑मृ॒तुभि॒र्द्रवि॑णोदो॒ यजा॑महे। अध॑ स्मा नो द॒दिर्भ॑व॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yat tvā turīyam ṛtubhir draviṇodo yajāmahe | adha smā no dadir bhava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। त्वा॒। तु॒रीय॑म्। ऋ॒तुऽभिः॑। द्रवि॑णःऽदः। यजा॑महे। अध॑। स्म॒। नः॒। द॒दिः। भ॒व॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:15» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ऋतु-ऋतु में ईश्वर का ध्यान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (द्रविणोदाः) आत्मा की शुद्धि करनेवाले विद्या आदि धनदायक ईश्वर ! हम लोग (यत्) जिस (तुरीयम्) स्थूल-सूक्ष्म-कारण और परम कारण आदि पदार्थों में चौथी संख्या पूरण करनेवाले (त्वा) आपको (ऋतुभिः) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले ऋतुओं के योग में (यजामहे स्म) सुखपूर्वक पूजते हैं, सो आप (नः) हमारे लिये धनादि पदार्थों को (अध) निश्चय करके (ददिः) देनेवाले (भव) हूजिये॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर तीन प्रकार के अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूप जगत् से अलग होने के कारण चौथा है, जो कि सब मनुष्यों को सर्वव्यापी सब का अन्तर्यामी और आधार नित्य पूजन करने योग्य है, उसको छोड़कर ईश्वरबुद्धि करके किसी दूसरे पदार्थ की उपासना न करनी चाहिये, क्योंकि इससे भिन्न कोई कर्म के अनुसार जीवों को फल देनेवाला नहीं है॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रत्यृतुमीश्वरध्यानमुपदिश्यते।

अन्वय:

हे द्रविणोदो जगदीश्वर ! वयं यद्यं तुरीयं त्वा त्वामृतुभिर्योगे यजामहे स्म स त्वं नोऽस्मभ्यमुत्तमानां विद्यादिधनानां ददिरध भव॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यम् (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (तुरीयम्) चतुर्णां स्थूलसूक्ष्मकारणपरमकारणानां संख्यापूरकम्। अत्र चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। (अष्टा०५.२.५१) इति वार्त्तिकेनास्य सिद्धिः। (ऋतुभिः) ऋच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यैस्तैः। अत्र अर्त्तेश्च तुः। (उणा०१.७३) इति ‘ऋ’धातोस्तुः प्रत्ययः किच्च। (द्रविणोदः) ददातीति दाः, द्रविणस्यात्मशुद्धिकरस्य विद्यादेर्धनस्य दास्तत्सम्बुद्धौ (यजामहे) पूजयामहे (अध) निश्चयार्थे (स्म) सुखार्थे। निपातस्य च इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) दाता। अत्र आदृगम० (अष्टा०३.२.१७१) इति ‘डुदाञ्’धातोः किः प्रत्ययः। (भव)॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वरस्त्रिविधस्य स्थूलसूक्ष्मकारणाख्यस्य जगतः सकाशात्पृथग्वस्तुत्वाच्चतुर्थो वर्त्तते। यश्च सकलैर्मनुष्यैः सर्वाभिव्यापी सर्वान्तर्यामी सर्वाधारो नित्यं पूजनीयोऽस्ति, नैतं विहाय केनचिदन्यस्येश्वरबुद्ध्योपासना कार्य्या। नैवैतस्माद्भिन्नः कश्चित्कर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलप्रदाताऽस्ति॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वर तीन प्रकारच्या अर्थात स्थूल, सूक्ष्म व कारणरूपी जगाहून वेगळा असल्यामुळे चौथा आहे. जो सर्वव्यापी, सर्वांन्तर्यामी, सर्वाधार व नित्यपूज्य आहे, त्याला सोडून ईश्वर समजून दुसऱ्या पदार्थांची उपासना करता कामा नये. कारण त्यापेक्षा वेगळा कोणीही कर्मानुसार जीवांना फळ देणारा नसतो. ॥ १० ॥