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मथी॒द्यदीं॑ वि॒ष्टो मा॑त॒रिश्वा॒ होता॑रं वि॒श्वाप्सुं॑ वि॒श्वदे॑व्यम्। नि यं द॒धुर्म॑नु॒ष्या॑सु वि॒क्षु स्व१॒॑र्ण चि॒त्रं वपु॑षे वि॒भाव॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mathīd yad īṁ viṣṭo mātariśvā hotāraṁ viśvāpsuṁ viśvadevyam | ni yaṁ dadhur manuṣyāsu vikṣu svar ṇa citraṁ vapuṣe vibhāvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मथी॑त्। यत्। ई॒म्। वि॒ष्टः। मा॒त॒रिश्वा॑। होता॑रम्। वि॒श्वऽअ॑प्सुम्। वि॒श्वऽदे॑व्यम्। नि। यम्। द॒धुः। म॒नु॒ष्या॑सु। वि॒क्षु। स्वः॑। न। चि॒त्रम्। वपु॑षे। वि॒भाऽव॑म् ॥ १.१४८.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:148» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब एकसौ अड़तालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् और अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (विष्टः) प्रविष्ट (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोनेवाला पवन (विश्वदेव्यम्) समस्त पृथिव्यादि पदार्थों में हुए (विश्वाप्सुम्) समग्र रूप ही जिसका गुण उस (होतारम्) सब पदार्थों के ग्रहण करनेवाले अग्नि को (मथीत्) है वा विद्वान् जन (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनी (विक्षु) प्रजाओं में (स्वः) सूर्य के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत और (वपुषे) रूप के लिये (विभावम्) विशेषता से भावना करनेवाले (यम्) जिस अग्नि को (ईम्) सब ओर से (नि, दधुः) निरन्तर धारण करते हैं उस अग्नि को तुम लोग धारण करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पवन के समान व्याप्त होनेवाली बिजुली रूप आग को मथ के कार्य्यों की सिद्धि करते हैं, वे अद्भुत कार्यों को कर सकते हैं ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वदग्निगुणानुपदिशति।

अन्वय:

हे मनुष्या यद्यो विष्टो मातरिश्वा विश्वदेव्यं विश्वाप्सुं होतारमग्निं मथीत् विद्वांसो मनुष्यासु विक्षु स्वर्ण चित्रं वपुषे विभावं यमीं निदधुस्तं यूयं धरत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मथीत्) मथ्नाति (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (विष्टः) प्रविष्टः (मातरिश्वा) अन्तरिक्षे शयानो वायुः (होतारम्) आदातारम् (विश्वाप्सुम्) विश्वं समग्रं रूपं गुणो यस्य तम् (विश्वदेव्यम्) विश्वेषु देवेषु पृथिव्यादिषु भवम् (नि) (यम्) (दधुः) दधति (मनुष्यासु) मनुष्यसम्बन्धिनीषु (विक्षु) प्रजासु (स्वः) सूर्य्यम् (न) इव (चित्रम्) अद्भुतम् (वपुषे) रूपाय (विभावम्) विशेषेण भावुकम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या वायुवद् व्यापिकां विद्युतं मथित्वा कार्याणि साध्नुवन्ति ते अद्भुतानि कर्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान व अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

भावार्थभाषाः - जी माणसे वायूप्रमाणे व्याप्त असलेल्या विद्युतरूपी अग्नीचे मंथन करून कार्याची सिद्धी करतात ते अद्भुत कार्य करू शकतात. ॥ १ ॥