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उ॒त वा॒ यः स॑हस्य प्रवि॒द्वान्मर्तो॒ मर्तं॑ म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑। अत॑: पाहि स्तवमान स्तु॒वन्त॒मग्ने॒ माकि॑र्नो दुरि॒ताय॑ धायीः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta vā yaḥ sahasya pravidvān marto martam marcayati dvayena | ataḥ pāhi stavamāna stuvantam agne mākir no duritāya dhāyīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। वा॒। यः। स॒ह॒स्य॒। प्र॒ऽवि॒द्वान्। मर्तः॑। मर्त॑म्। म॒र्चय॑ति। द्व॒येन॑। अतः॑। पा॒हि॒। स्त॒व॒मा॒न॒। स्तु॒वन्त॑म्। अग्ने॑। माकिः॑। नः॒। दुः॒ऽइ॒ताय॑। धा॒यीः॒ ॥ १.१४७.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:147» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहस्य) बलादिक में प्रसिद्ध होने (स्तवमान) और सज्जनों की प्रशंसा करनेवाले (अग्ने) विद्वान् ! तू (यः) जो (प्रविद्वान्) उत्तमता से जाननेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (द्वयेन) अध्यापन और उपदेश रूप से (मर्त्तम्) मनुष्य को (मर्चयति) कहता है अर्थात् प्रशंसित करता है (अतः) इससे (स्तुवन्तम्) स्तुति अर्थात् प्रशंसा करते हुए जन को (पाहि) पालो (उत, वा) अथवा (नः) हम लोगों को (दुरिताय) दुष्ट आचरण के लिये (माकिः) मत कभी (धायीः) धायिये (=पालिये) ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् उत्तम शिक्षा और पढ़ाने से मनुष्यों के आत्मिक और शारीरिक बल को बढ़ा के और उनको अविद्या और पाप के आचरण से अलग करते हैं, वे सबकी शुद्धि करनेवाले होते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में मित्र और अमित्रों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये ॥।एकसौ सैंतालीसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सहस्य स्तवमानाग्ने त्वं यः प्रविद्वान् मर्त्तो द्वयेन मर्त्तं मर्चयत्यतस्तं स्तुवन्तं पाहि। उत वा नोऽस्मान् दुरिताय माकिर्धायीः ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (यः) (सहस्य) सहसि भव (प्रविद्वान्) प्रकर्षेण वेत्तीति प्रविद्वान् (मर्त्तः) मनुष्यः (मर्त्तम्) मनुष्यम् (मर्चयति) शब्दयति (द्वयेन) अध्यापनोपदेशरूपेण (अतः) (पाहि) (स्तवमान) स्तुतिकर्त्तः (स्तुवन्तम्) स्तुतिकर्त्तारम् (अग्ने) विद्वन् (माकिः) निषेधे (नः) अस्मान् (दुरिताय) दुष्टाचाराय (धायीः) धाययेः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसः सुशिक्षाध्यापनाभ्यां मनुष्याणामात्मशरीरबलं वर्धयित्वाऽविद्यापापाचरणात् पृथक् कुर्वन्ति ते विश्वशोधका भवन्ति ॥ ५ ॥।अस्मिन् सूक्ते मित्राऽमित्रगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति सप्तचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान उत्तम शिक्षण व अध्यापनाने माणसांचा आत्मिक व शारीरिक बल वाढवून त्यांना अविद्या व पापाच्या आचरणापासून दूर करतात ते सर्वांची शुद्धी करणारे असतात. ॥ ५ ॥