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स ईं॑ मृ॒गो अप्यो॑ वन॒र्गुरुप॑ त्व॒च्यु॑प॒मस्यां॒ नि धा॑यि। व्य॑ब्रवीद्व॒युना॒ मर्त्ये॑भ्यो॒ऽग्निर्वि॒द्वाँ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa īm mṛgo apyo vanargur upa tvacy upamasyāṁ ni dhāyi | vy abravīd vayunā martyebhyo gnir vidvām̐ ṛtacid dhi satyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। ई॒म्। मृ॒गः। अप्यः॑। व॒न॒र्गुः। उप॑। त्व॒चि। उ॒प॒ऽमस्या॒म्। नि। धा॒यि॒। वि। अ॒ब्र॒वी॒त्। व॒युना॑। मर्त्ये॑भ्यः। अ॒ग्निः। वि॒द्वान्। ऋ॒त॒ऽचित्। हि। स॒त्यः ॥ १.१४५.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:145» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - विद्वानों से जो (अप्यः) जलों के योग्य (वनर्गुः) वनगामी (मृगः) हरिण के समान (उपमस्याम्) उपमा रूप (त्वचि) त्वगिन्द्रिय में (उप, नि, धायि) समीप निरन्तर धरा जाता है वा जो (ऋतचित्) सत्य व्यवहार को इकट्ठा करनेवाला (अग्निः) अग्नि के समान विद्या आदि गुणों से प्रकाशमान (विद्वान्) सब विद्याओं को जाननेवाला पण्डित (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों के लिये (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों का (ईम्) ही (वि, अब्रवीत्) विशेष करके उपदेश देता है (सः, हि) वही (सत्यः) सज्जनों में साधु है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे तृषातुर मृग जल पीने के लिये वन में डोलता-डोलता जल को पाकर आनन्दित होता है वैसे विद्वान् जन शुभ आचरण करनेवाले विद्यार्थियों को पाकर आनन्दित होते हैं और जो शिक्षा पाकर औरों को नहीं देते वे क्षुद्राशय और अत्यन्त पापी होते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में उपदेश करने और उपदेश सुननेवालों के कर्त्तव्य कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पैंतालीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

विद्वद्भिर्योऽप्यो वनर्गुर्मृगइव उपमस्यां त्वच्युपनिधायि च ऋतचिदग्निर्विद्वान् मर्त्येभ्यो वयुने व्यब्रवीत् स हि सत्योऽस्ति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (ईम्) (मृगः) (अप्यः) योऽपोर्हति (वनर्गुः) वनगामी। अत्र वनोपपदादृजु धातोरौणादिक उप्रत्ययो बाहुलकात्कुत्वं च। (उप) (त्वचि) त्वगिन्द्रिये (उपमस्याम्) उपमायाम्। अत्र वाच्छन्दसीति स्याडागमः। (नि) (धायि) धीयते (वि) (अब्रवीत्) उपदिशति (वयुना) प्रज्ञानानि (मर्त्येभ्यः) मनुष्येभ्यः (अग्निः) अग्निरिव विद्यादिसद्गुणैः प्रकाशमानाः (विद्वान्) वेत्ति सर्वा विद्याः सः (ऋतचित्) य ऋतं सत्यं चिनोति (हि) किल (सत्यः) सत्सु पुरुषेषु साधुः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा तृषातुरो मृगो जलपानाय वने भ्रमित्वा जलं प्राप्य नन्दति तथा विद्वांसो शुभाचरितान् विद्यार्थिनः प्राप्यानन्दन्ति, ये विद्याः प्राप्याऽन्येभ्यो न प्रयच्छन्ति ते क्षुद्राशयाः पापिष्ठाः सन्तीति ॥ ५ ॥अत्रोपदेशकोपदेश्यकर्त्तव्यकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥इति पञ्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा तुषातुर मृग वनात जल प्राप्त करण्यासाठी फिरतो व जल पाहून आनंदित होतो, तसे विद्वान लोक शुभ आचरण करणाऱ्या विद्यार्थ्यांना पाहून आनंदित होतात. जे विद्या प्राप्त करून इतरांना देत नाहीत ते क्षुद्र व अत्यंत पापी असतात. ॥ ५ ॥