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यमीं॒ द्वा सव॑यसा सप॒र्यत॑: समा॒ने योना॑ मिथु॒ना समो॑कसा। दिवा॒ न नक्तं॑ पलि॒तो युवा॑जनि पु॒रू चर॑न्न॒जरो॒ मानु॑षा यु॒गा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam īṁ dvā savayasā saparyataḥ samāne yonā mithunā samokasā | divā na naktam palito yuvājani purū carann ajaro mānuṣā yugā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। ई॒म्। द्वा। सऽव॑यसा। स॒प॒र्यतः॑। स॒मा॒ने। योना॑। मि॒थु॒ना। सम्ऽओ॑कसा। दिवा॑। न। नक्त॑म्। प॒लि॒तः। युवा॑। अ॒ज॒नि॒। पु॒रु। चर॑न्। अ॒जरः॑। मानु॑षा। यु॒गा ॥ १.१४४.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:144» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (सवयसा) समान अवस्थायुक्त (द्वा) दो (समान) तुल्य (योना) उत्पत्ति स्थानमें (मिथुना) मैथुन कर्म करनेवाले स्त्री-पुरुष (समोकसा) समान घर के साथ वर्त्तमान (दिवा) दिन (नक्तम्) रात्रि के (न) समान (यम्) जिस (ईम्) प्रत्यक्ष बालक का (सपर्यतः) सेवन करें उसको पालें, वह (अजरः) जरा अवस्थारूपी रोगरहित (मानुषा) मनुष्य सम्बन्धी (युगा) वर्षों को (पुरु) बहुत (चरन्) चलता भोगता हुआ (पलितः) सुपेद बालोंवाला भी हो तो (युवा) ज्वान तरुण अवस्थावाला (अजनि) प्रकट होता है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रीति के साथ वर्त्तमान स्त्री-पुरुष धर्मसम्बन्धी व्यवहार से पुत्र को उत्पन्न कर उसे अच्छी शिक्षा दे शीलवान् कर सुखी करते हैं, वैसे समान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले दो विद्वान् शिष्यों को सुशील करते हैं। वा जैसे दिन, रात्रि के साथ वर्त्तमान भी अपने स्थान में रात्रि को निवृत्त करता है, वैसे अज्ञानियों के साथ वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले विद्वान् मोह में नहीं लगते हैं। वा जैसे किया है पूरा ब्रह्मचर्य जिन्होंने, वे रूपलावण्य और बलादि गुणों से युक्त सन्तान को उत्पन्न करते हैं, वैसे ये सत्य पढ़ाने और उपदेश करने से सबका पूरा आत्मबल उत्पन्न करते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

सवयसा द्वा समाने योना मिथुना दम्पती समोकसा सह वर्त्तमानौ दिवा नक्तन्नेव यमीं वालं सपर्यतः सोऽजरो मानुषा युगा पुरु चरन् पालितोऽपि युवाऽजनि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) सन्तानम् (ईम्) (द्वा) द्वौ (सवयसा) समानवयसौ (सपर्यतः) परिचरतः (समाने) तुल्ये (योना) योनौ जन्मनिमित्ते (मिथुना) दम्पती (समोकसा) समानगृहेण सह वर्त्तमानौ (दिवा) दिवसे (न) इव (नक्तम्) रात्रौ (पलितः) जातश्वेतकेशः (युवा) युवावस्थास्थः (अजनि) जायेत (पुरु) बहु (चरन्) विचरन् (अजरः) जरारोगरहितः (मानुषा) मनुष्यसम्बन्धीनि (युगा) युगानि वर्षाणि ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रीत्या सह वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ धर्म्येण सुतं जनयित्वा सुशिक्ष्य शीलेन संस्कृत्य भद्रं कुरुतस्तथा समानावध्यापकोपदेशकौ शिष्यान् सुशीलान्कुरुतः। यथा वा दिनं रात्र्या सह वर्त्तमानमपि स्वस्थाने रात्रिं निवारयति तथाऽज्ञानिभिस्सह वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ मोहे न संलगतः। यथा वा कृतपूर्णब्रह्मचर्यौ रूपलावण्यबलादिगुणयुक्तं सन्तानमुत्पादयतस्तथैतौ सत्याध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वेषां पूर्णमात्मबलं जनयतः ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे स्त्री-पुरुष धर्मासंबंधी व्यवहार करून प्रेमाने पुत्र उत्पन्न करतात व त्याला चांगले शिक्षण देऊन सुशील व सुसंस्कारित करतात तसे समान शिकविणारे व उपदेश करणारे दोन विद्वान शिष्यांना सुशील करतात. जसा दिवस रात्रीबरोबर राहून स्वस्थानातून रात्रीचे निवारण करतो तसे अज्ञानी लोकांबरोबर असणारे अध्यापक व उपदेशक विद्वान मोहात अडकत नाहीत किंवा पूर्ण ब्रह्मचर्यपालन करून रूप, लावण्य व बल इत्यादी गुणांनी युक्त होऊन संतान उत्पन्न करतात तसे ते सत्याचे अध्यापन व उपदेश याद्वारे सर्वांमध्ये पूर्ण आत्मबल उत्पन्न करतात. ॥ ४ ॥